दादी की गोद: दुनिया की सबसे महफूज पनाहगाह
कुछ एहसास ऐसे होते हैं, जिन्हें शब्द बयां नहीं कर सकते। वे बस महसूस किए जा सकते हैं। ऐसी ही एक जगह है दादी की गोद - दुनिया का वह कोना, जहाँ हर डर छोटा पड़ जाता है, हर आँसू सूख जाता है, और हर चिंता एक मीठी सी लोरी सुनकर सो जाती है। यह कहानी है उसी गोद की, और एक ऐसे पोते की, जो दुनिया जीतने के बाद, अपनी असली शांति पाने के लिए उसी गोद में लौटा।
यह कहानी है रोहन की, उसकी दादी, जिसे वह 'अम्मा' कहता था, और उसके पिता, श्री अविनाश, की।
रोहन, न्यूयॉर्क में एक बड़ा इन्वेस्टमेंट बैंकर था। उसकी दुनिया ऊँची इमारतों, स्टॉक मार्केट के उतार-चढ़ाव और एक कभी न रुकने वाली दौड़ से बनी थी। उसके पास पैसा था, सफलता थी, पर सुकून नहीं था। वह अक्सर रात में बेचैन रहता, उसे अपने भारत के छोटे से गाँव की, और अपनी अम्मा की बहुत याद आती।
उसकी अम्मा, 80 साल की एक बूढ़ी औरत, जिनकी दुनिया सिमटकर अब अपने आँगन और अपनी यादों तक रह गई थी। उनकी आँखें कमजोर हो गई थीं, पर उनका दिल आज भी उतना ही मजबूत और प्यार से भरा था।
यह एक आम भारतीय परिवार का संघर्ष था, जहाँ एक पीढ़ी अपनी जड़ों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाती है, और दूसरी पीढ़ी उन्हीं जड़ों को सींचते हुए चुपचाप इंतज़ार करती है।
रोहन के पिता, अविनाश, गाँव में ही रहते थे और खेती-बाड़ी देखते थे। उनके और रोहन के बीच हमेशा एक अनकही सी दूरी रही। अविनाश को लगता था कि उनका बेटा पैसे के पीछे भागकर अपनी ज़मीन और अपने परिवार को भूल गया है। यह एक पिता-पुत्र के बीच की गलतफहमी थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब रोहन ने अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सौदा खो दिया। जिस कंपनी पर उसने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था, वह रातों-रात दिवालिया हो गई। रोहन की सालों की मेहनत, उसकी सारी कमाई, एक पल में मिट्टी में मिल गई।
वह टूट गया। सफलता की जिन ऊँचाइयों पर वह खड़ा था, वहाँ से ज़मीन पर गिरना असहनीय था। वह महीनों तक डिप्रेशन में रहा।
एक रात, जब वह अपनी बालकनी में खड़ा, नीचे शहर की जगमगाती रोशनी को देख रहा था, तो उसे अचानक अपने गाँव की अँधेरी रात और टिमटिमाते तारों की याद आई। उसे याद आई अपनी दादी की गोद, जहाँ वह बचपन में हर डर और हर दुख को भूलकर सो जाता था।
अगले ही दिन, उसने सब कुछ छोड़कर भारत की फ्लाइट पकड़ ली।
जब वह सालों बाद अपने गाँव के दरवाज़े पर पहुँचा, तो वह एक बदला हुआ इंसान था। उसकी आँखों में वह पुरानी चमक नहीं, बल्कि एक गहरी थकान और हार थी।
दरवाज़ा उसके पिता, अविनाश, ने खोला। उन्होंने अपने बेटे को इस हालत में देखा, तो उनका सारा गुस्सा पिघल गया। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस उसे कसकर गले से लगा लिया।
पर रोहन की नज़रें अपनी अम्मा को ढूँढ़ रही थीं।
वह अंदर भागा। अम्मा अपने पुराने, लकड़ी के झूले पर बैठी थीं, उनकी आँखें दरवाज़े पर ही टिकी थीं, मानो उन्हें अपने 'रोहन' के आने का इंतज़ार था।
"अम्मा," रोहन बस इतना ही कह पाया, और एक छोटे बच्चे की तरह दौड़कर उनकी गोद में अपना सिर छिपा लिया।
उसकी अम्मा की गोद आज भी वैसी ही थी - नरम, गर्म और दुनिया की सबसे महफूज जगह। अम्मा ने कुछ नहीं पूछा - न उसकी सफलता के बारे में, न उसकी हार के बारे में। उन्होंने बस अपना झुर्रियों वाला, कांपता हुआ हाथ उसके सिर पर रख दिया और धीरे-धीरे उसे सहलाने लगीं।
यह एक माँ का নিঃस्वार्थ प्रेम था, जो अपने बच्चे से कोई सवाल नहीं करता, बस उसके हर ज़ख्म पर मरहम लगाता है।
रोहन घंटों तक उनकी गोद में सिर रखे रोता रहा। सालों का दबा हुआ तनाव, हार का दर्द, और अकेलेपन का बोझ, सब कुछ उन आँसुओं में बह रहा था।
उस रात, सालों बाद, रोहन अपनी दादी की गोद में ही सिर रखकर सोया। उसे ऐसी गहरी और सुकून भरी नींद आई, जैसी न्यूयॉर्क के महंगे गद्दों पर भी कभी नहीं आई थी।
अगले कुछ हफ्ते, रोहन वहीं रहा। वह अपनी अम्मा के साथ समय बिताता, उनकी कहानियाँ सुनता। उसने अपने पिता के साथ खेतों में काम करना शुरू कर दिया। मिट्टी की सौंधी खुशबू, ठंडी हवा और अपने परिवार के साथ ने उसके अंदर एक नई ऊर्जा भर दी।
एक शाम, जब वह अपने पिता के साथ खेत से लौट रहा था, तो अविनाश ने कहा, "बेटा, मैं हमेशा सोचता था कि तू हमें भूल गया है। मुझे माफ कर दे, मैं तुझे समझ ही नहीं पाया।"
"नहीं पापा," रोहन ने कहा, "मैं ही अंधा हो गया था। मैं सफलता के पीछे इतना भागा कि यह भूल ही गया कि मेरी असली दौलत तो यहाँ, आप लोगों के पास है।"
यह पिता-पुत्र के रिश्ते का एक नया अध्याय था।
जाने से एक दिन पहले, रोहन अपनी अम्मा के पास बैठा था।
"अम्मा, मैं वापस जा रहा हूँ," उसने कहा।
अम्मा मुस्कुराईं। "जा, बेटा। पर एक बात याद रखना। ज़िंदगी में जीत-हार तो चलती रहती है। जब भी तुझे लगे कि तू थक गया है, या हार गया है, तो याद रखना कि तेरी अम्मा की गोद हमेशा तेरा इंतज़ार करेगी।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि दादी की गोद सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि एक एहसास है। यह वह एहसास है कि चाहे हम दुनिया के किसी भी कोने में हों, कितने भी बड़े या सफल क्यों न हो जाएँ, एक जगह हमेशा है जहाँ हम बिना किसी शर्त के स्वीकार किए जाते हैं, जहाँ हम अपनी सारी हार और सारे डर को छोड़कर फिर से बच्चे बन सकते हैं।
रोहन न्यूयॉर्क लौटा, पर अब वह एक नया इंसान था। उसने फिर से शुरुआत की, पर इस बार उसके अंदर हार का डर नहीं, बल्कि अपनी जड़ों की ताकत और अपनी दादी के आशीर्वाद का अटूट विश्वास था।

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