पहला प्यार: दिल के संदूक में छिपा एक अधूरा खत

 

पहला प्यार: दिल के संदूक में छिपा एक अधूरा खत
pahla pyar

पहला प्यार ज़िंदगी की उस किताब का सबसे खूबसूरत पन्ना होता है, जिसकी खुशबू सालों बाद भी हमारी यादों को महकाती रहती है। यह अक्सर अधूरा रह जाता है, पर पूरा होकर भी शायद उतना मुकम्मल नहीं होता, जितना अपनी अधूरी चाहतों में होता है। यह कहानी है ऐसे ही एक पहले प्यार की, जो समय की धूल में कहीं खो गया था, पर भूला नहीं था।

यह कहानी है केशव और आरोही की।

लखनऊ के अमीनाबाद की तंग गलियों में, जहाँ आज भी पुराने घरों की बालकनियाँ एक-दूसरे से बातें करती थीं, वहाँ केशव का बचपन बीता था। उसके घर के ठीक सामने वाली बालकनी में आरोही रहती थी। उनका रिश्ता किताबों के आदान-प्रदान, चोरी-छिपे एक-दूसरे को देखने और बिना कुछ कहे, सब कुछ समझ जाने वाला था।

केशव एक शर्मीला और किताबों में डूबा रहने वाला लड़का था। आरोही एक चंचल और ज़िंदादिल लड़की थी, जिसकी हँसी पूरे मोहल्ले में गूँजती थी। वे दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे, और शायद इसीलिए एक-दूसरे के पूरक भी।

यह एक मासूम प्रेम कहानी थी, जो स्कूल की किताबों और साइकिल की घंटियों के बीच पनप रही थी।

इस कहानी में दो और महत्वपूर्ण किरदार हैं - केशव की माँ, जो अपने बेटे के मन की हर बात पढ़ लेती थीं, और आरोही के पिता, जो एक सख्त और अनुशासित पुलिस अफसर थे।

केशव ने महीनों की हिम्मत जुटाकर, आरोही के लिए एक खत लिखा था। उस खत में उसने अपने दिल की सारी बातें, अपनी सारी भावनाएँ उड़ेल दी थीं। वह उस खत को आरोही को देने ही वाला था, कि उसके पिता का ट्रांसफर एक दूसरे शहर में हो गया।

"केशव," उसकी माँ ने उदासी से कहा, "हमें अगले हफ्ते यह शहर छोड़ना होगा।"

यह सुनकर केशव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसे लगा जैसे किसी ने उसकी दुनिया ही उजाड़ दी हो। वह उस खत को कभी आरोही तक पहुँचा ही नहीं पाया। वह खत, उसके पहले प्यार की अधूरी निशानी बनकर, उसकी किताबों के बीच कहीं दब गया।

समय का पहिया घूमा।

पंद्रह साल बीत गए। केशव अब एक सफल लेखक बन चुका था। उसकी कहानियों में अक्सर एक अधूरी प्रेम कहानी का ज़िक्र होता, एक ऐसी लड़की का, जिसकी हँसी झरनों जैसी थी। पर उसकी अपनी ज़िंदगी में, आरोही के बाद कोई और नहीं आ पाया था।

एक दिन, उसे अपने पुराने शहर, लखनऊ, एक लिटरेचर फेस्टिवल में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया।

लखनऊ पहुँचते ही, पुरानी यादें उसे घेरने लगीं। वह खुद को रोक नहीं पाया और अपनी उस पुरानी गली में पहुँच गया। सब कुछ बदल चुका था। पुराने घर अब नए फ्लैट्स में तब्दील हो रहे थे।

उसने अपने पुराने घर को देखा, जो अब बिक चुका था। और फिर उसने सामने वाली बालकनी को देखा। वहाँ आज भी कोई खड़ा था।

वह आरोही थी।

पंद्रह सालों ने उसके चेहरे पर एक परिपक्वता ला दी थी, पर उसकी आँखों में आज भी वही पुरानी चमक थी। वह अब एक स्कूल में टीचर थी और अपने पिता के साथ वहीं रह रही थी।

दोनों की नज़रें मिलीं, और समय जैसे वहीं ठहर गया।

"तुम... तुम यहाँ?" आरोही ने कांपती आवाज़ में पूछा।

"हाँ... बस यूँ ही," केशव कह पाया।

अगले कुछ दिन, वे दोनों मिले। उन्होंने अपने बीते हुए सालों की कहानियाँ साझा कीं। पर दोनों में से किसी ने भी उस अनकहे अतीत को नहीं छुआ।

फेस्टिवल के आखिरी दिन, केशव की माँ भी लखनऊ आईं। जब वह आरोही से मिलीं, तो उन्होंने उसे कसकर गले से लगा लिया।

"कैसी है, मेरी बच्ची?" उन्होंने प्यार से पूछा।

उस शाम, जब केशव अपने होटल के कमरे में था, तो उसकी माँ उसके पास आईं। उनके हाथ में एक पुरानी, पीली पड़ चुकी किताब थी।

"केशव," उन्होंने कहा, "कुछ चीज़ें सही समय पर सही जगह पहुँच जानी चाहिए। शायद अब सही समय आ गया है।"

उन्होंने वह किताब खोली, और उसके पन्नों के बीच से एक पुराना, मुड़ा हुआ खत निकाला। यह वही खत था, जो केशव ने पंद्रह साल पहले आरोही के लिए लिखा था।

"माँ, यह... यह आपके पास कैसे?" केशव हैरान था।

"एक माँ से उसके बच्चे का दिल कभी छिपा नहीं रहता," वह मुस्कुराईं। "मैंने इसे सालों तक सँभालकर रखा, इस उम्मीद में कि एक दिन तुम इसे खुद उसके हाथों में दोगे।"

यह एक माँ का নিঃस्वार्थ प्रेम था, जो अपने बेटे की अधूरी कहानी को पूरा होते देखना चाहती थी।

उस रात, केशव उस ख-त को लेकर आरोही के घर पहुँचा।

"यह तुम्हारे लिए है," उसने कांपते हाथों से वह खत आरोही को दिया। "पंद्रह साल देर से ही सही।"

आरोही ने वह खत खोला। जैसे-जैसे वह उसे पढ़ती गई, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वे सारे अनकहे शब्द, वे सारी भावनाएँ, जो सालों से दोनों के दिलों में दफ्न थीं, आज कागज़ पर ज़िंदा हो उठी थीं।

खत पढ़ने के बाद, आरोही ने अपनी अलमारी से एक पुराना संदूक निकाला। उसमें से उसने एक सूखा हुआ गुलाब का फूल निकाला।

"यह मैंने तुम्हारे लिए रखा था," उसने सिसकते हुए कहा। "जिस दिन तुम शहर छोड़कर गए थे, उस दिन यह मेरी किताब में गिर गया था।"

उस रात, दो अधूरे हिस्से मिलकर पूरे हो गए।

यह कहानी हमें सिखाती है कि पहला प्यार कभी मरता नहीं। वह बस हमारे दिल के किसी संदूक में बंद हो जाता है, और सही समय का इंतज़ार करता है। कभी-कभी, ज़िंदगी हमें दूसरा मौका ज़रूर देती है, अपनी अधूरी कहानियों को पूरा करने का। ज़रूरत है तो बस थोड़ी सी हिम्मत की, और उस विश्वास की, कि सच्चा प्यार समय और दूरियों से परे होता है।

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