जितिया त्योहार: एक माँ की अटूट आस्था और बेटे का बदला हुआ विश्वास

 

जितिया त्योहार: एक माँ की अटूट आस्था और बेटे का बदला हुआ विश्वास
Jitiya

बिहार के एक छोटे से गाँव में, जहाँ आज भी परंपराएँ रिश्तों की नींव होती हैं, वहाँ जितिया का त्योहार सिर्फ एक व्रत नहीं, बल्कि माँ के प्रेम, त्याग और अटूट आस्था का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता था। यह कहानी है उसी आस्था की, और एक ऐसे बेटे की, जिसने अपनी माँ के विश्वास को एक नई नज़र से देखना सीखा।

यह कहानी है शारदा देवी की, उनके बेटे, अभिनव की, और उनकी बहू, प्रिया की।

शारदा देवी हर साल अपनी संतान की लंबी उम्र और सलामती के लिए जितिया का निर्जला व्रत रखती थीं। पूरे चौबीस घंटे बिना पानी की एक बूँद पिए, वह पूरी श्रद्धा से यह कठिन व्रत करती थीं। उनके लिए यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि उनके बच्चों के लिए उनका सुरक्षा कवच था।

उनका बेटा, अभिनव, एक पढ़ा-लिखा और तर्कवादी इंजीनियर था, जो शहर में काम करता था। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करता था, पर उसे यह व्रत एक अंधविश्वास और खुद को कष्ट देने का एक तरीका लगता था।

"माँ, आप क्यों खुद को इतना तकलीफ देती हैं?" वह हर साल फोन पर कहता। "मेरे ठीक रहने का आपकी भूखी-प्यासी रहने से क्या संबंध है? अपनी सेहत का तो ख्याल रखिए।"

शारदा देवी बस मुस्कुरा देतीं। "बेटा, तू नहीं समझेगा। यह तकलीफ नहीं, एक माँ का सुकून है। जब मैं यह व्रत करती हूँ, तो मुझे लगता है जैसे मैंने तुझे हर बला से बचाने के लिए एक किला बना दिया है।"

अभिनव की पत्नी, प्रिया, एक समझदार और संवेदनशील महिला थी। वह अपने पति के तर्कों को भी समझती थी और अपनी सास की भावनाओं का भी सम्मान करती थी।

इस साल, जितिया त्योहार से कुछ दिन पहले, अभिनव का एक बड़ा एक्सीडेंट हो गया। वह ऑफिस से घर लौट रहा था, जब एक तेज रफ्तार ट्रक ने उसकी गाड़ी को टक्कर मार दी। उसे गंभीर चोटें आईं और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

यह खबर सुनते ही शारदा देवी और प्रिया भागे-भागे शहर पहुँचे। डॉक्टर ने बताया कि अभिनव की हालत बहुत नाजुक है और अगले 24 घंटे बहुत महत्वपूर्ण हैं।

पूरा परिवार टूट गया। शारदा देवी ने अपने बेटे को आईसीयू में मशीनों से घिरा हुआ देखा, तो उनका कलेजा मुँह को आ गया।

अगले दिन जितिया का व्रत था।

प्रिया ने अपनी सास से कहा, "माँजी, आप इस हालत में व्रत मत रखिए। आपकी तबीयत खराब हो जाएगी।"

शारदा देवी ने अपनी बहू की ओर एक दृढ़ निश्चय वाली नज़रों से देखा। "आज तो यह व्रत और भी ज़रूरी है, बेटी। आज मेरे बेटे को मेरे पुण्य की, मेरी आस्था की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। मैं आज सिर्फ अपने बेटे के लिए नहीं, बल्कि यमराज से उसकी ज़िंदगी की भीख माँगने के लिए यह व्रत करूँगी।"

उस दिन, शारदा देवी ने अस्पताल के एक कोने में बैठकर अपना निर्जला व्रत शुरू किया। वह न कुछ खा रही थीं, न पी रही थीं। बस उनकी आँखें बंद थीं और उनके होंठ लगातार हिल रहे थे, मानो वह सीधे भगवान जीमूतवाहन से अपने बेटे की ज़िंदगी की गुहार लगा रही हों।

अभिनव, जो बेहोशी की हालत में था, को यह सब पता नहीं था।

शाम होते-होते, शारदा देवी की हालत खराब होने लगी। उनका चेहरा पीला पड़ गया था और कमज़ोरी के कारण वह ठीक से बैठ भी नहीं पा रही थीं। प्रिया ने उन्हें पानी पीने के लिए बहुत कहा, पर उन्होंने इनकार कर दिया।

"जब तक मेरा बेटा आँखें नहीं खोलता, मेरे गले से पानी का एक घूँट भी नीचे नहीं उतरेगा," उन्होंने कहा।

उस रात, डॉक्टर ने आकर कहा कि अभिनव की हालत और भी बिगड़ रही है और उन्हें शायद बचाया नहीं जा सकेगा।

यह सुनकर प्रिया पूरी तरह से टूट गई। पर शारदा देवी अपनी जगह से नहीं हिलीं। उनकी आस्था अब भी अटूट थी।

आधी रात के बाद, अचानक अभिनव के शरीर में हल्की सी हरकत हुई। उसने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं। नर्स दौड़कर डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने जाँच करने के बाद कहा, "यह एक चमत्कार है! इनकी हालत में सुधार हो रहा है। अब यह खतरे से बाहर हैं।"

अगली सुबह, जब व्रत खोलने का समय हुआ, तो अभिनव पूरी तरह से होश में था। उसने अपनी माँ को देखा, जो रात भर की जागी हुई और व्रत के कारण बेहद कमजोर लग रही थीं।

"माँ, आप ठीक हैं?" उसने धीरे से पूछा।

शारदा देवी की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। उन्होंने अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरा।

प्रिया ने अभिनव को सारी बात बताई - कि कैसे उसकी माँ ने अपनी जान की परवाह किए बिना, उसके लिए यह कठिन जितिया का व्रत रखा।

यह सुनकर अभिनव की आँखों से भी आँसू बहने लगे। आज उसे पहली बार अपनी माँ की आस्था की गहराई का एहसास हुआ। उसे समझ आया कि यह अंधविश्वास नहीं, यह तो एक माँ का अपनी संतान के लिए सबसे शुद्ध और शक्तिशाली प्रेम है। यह वह प्रेम है, जो विज्ञान और तर्क से परे है, जो मौत से भी लड़ जाने की हिम्मत रखता है।

उसने अपनी माँ का हाथ पकड़ा। "मुझे माफ कर दो, माँ। मैं आपके विश्वास को कभी समझ ही नहीं पाया।"

शारदा देवी मुस्कुराईं। "कोई बात नहीं, बेटा। माँ का प्यार समझने के लिए माँ बनना पड़ता है।"

यह कहानी हमें सिखाती है कि जितिया का त्योहार सिर्फ एक परंपरा नहीं, यह माँ के निःस्वार्थ प्रेम, उसके असीम त्याग और उसकी उस अटूट आस्था का प्रतीक है, जो अपनी संतान के लिए किसी भी चुनौती का सामना कर सकती है। यह एक ऐसा धागा है, जो माँ और बच्चे के रिश्ते को जन्म-जन्मांतर के लिए बाँध देता है।

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