अम्मा-आई: दो नामों का एक रिश्ता
रोहित की परवरिश दो माँओं ने की थी। एक उसकी अपनी माँ, जिसे वह 'अम्मा' कहता था, और दूसरी उसकी मराठी पड़ोसन, शारदा ताई, जिसे वह प्यार से 'आई' कहता था। रोहित का बचपन मुंबई की एक ऐसी चॉल में बीता था, जहाँ दीवारें साँझी थीं और रिश्ते खून से ज़्यादा अपनेपन से बनते थे।
रोहित की अम्मा, विमला, एक सीधी-सादी महिला थीं। उनकी दुनिया पूजा-पाठ और घर-गृहस्थी तक ही सीमित थी। वहीं, शारदा आई एक ज़िंदादिल और बेबाक औरत थीं। उनके घर से हमेशा पूरन पोली की मीठी महक और लावणी के घुँघरुओं की आवाज़ आती थी।
यह कहानी है अम्मा और आई के उस अनूठे रिश्ते की, जिसने रोहित की ज़िंदगी को सँवारा।
जब रोहित छोटा था, तो उसकी अम्मा उसे रामायण की कहानियाँ सुनाती थीं, उसे सिखाती थीं कि बड़ों के पैर छूना चाहिए और कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। यह संस्कार की दुनिया थी।
और जब वह अपनी अम्मा से नज़र बचाकर पड़ोस के दरवाज़े में घुस जाता, तो आई उसे शिवाजी महाराज की वीरता के किस्से सुनाती थीं। वह उसे सिखाती थीं कि अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाना चाहिए और कभी हार नहीं माननी चाहिए। यह साहस की दुनिया थी।
रोहित की ज़िंदगी इन दो दुनियाओं के बीच खूबसूरती से बँटी हुई थी। अगर अम्मा के हाथ की बनी खीर में दुलार था, तो आई के हाथ के बने वड़ा पाव में एक अलग सा अपनापन था। अम्मा उसे नज़र का टीका लगाती थीं, तो आई उसकी जीत पर ज़ोर से 'शाब्बास, मर्दा!' कहकर उसकी पीठ थपथपाती थीं।
दो माँओं का प्यार उसे दो अलग-अलग तरीकों से मिल रहा था, पर दोनों की ममता एक जैसी ही गहरी थी।
समय बीता। रोहित बड़ा हो गया और उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पुणे जाना पड़ा। पहली बार वह अपने घर, अपनी चॉल, और अपनी दोनों माँओं से दूर जा रहा था।
जब वह जा रहा था, तो अम्मा ने उसकी आरती उतारी, उसके माथे पर दही का टीका लगाया और आँखों में आँसू लिए कहा, "अपना ध्यान रखना, बेटा।"
और जब वह आई के पैर छूने गया, तो आई ने उसे कसकर गले से लगा लिया और उसके हाथ में एक छोटा सा डिब्बा थमाते हुए कहा, "इसमें शेंगदाणा चटनी (मूंगफली की चटनी) है। जब घर की याद आए, तो खा लेना। और हाँ, किसी से डरना नहीं। तेरी आई ज़िंदा है अभी।"
पुणे में रोहित को अक्सर घर की याद आती। जब वह अकेला महसूस करता, तो अपनी अम्मा को फोन करता और उनकी शांत आवाज़ सुनकर उसे सुकून मिलता। और जब वह किसी मुश्किल में होता या उसका आत्मविश्वास डगमगाता, तो वह आई को फोन करता और उनकी जोशीली आवाज़ सुनकर उसकी सारी हिम्मत लौट आती।
कहानी में मोड़ तब आया, जब रोहित के फाइनल ईयर में, उसकी अम्मा की तबीयत बहुत खराब हो गई। उन्हें दिल की एक गंभीर बीमारी हो गई थी और ऑपरेशन के लिए बहुत सारे पैसों की ज़रूरत थी। रोहित ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने का फैसला कर लिया ताकि वह नौकरी करके पैसे कमा सके।
जब यह बात आई को पता चली, तो वह अगले ही दिन पुणे पहुँच गईं।
उन्होंने रोहित को डाँटते हुए कहा, "पागल हो गया है? पढ़ाई छोड़ेगा? तेरी अम्मा ने तुझे इसलिए बड़ा किया था कि तू एक मुश्किल आते ही हार मान ले?"
रोहित ने रोते हुए कहा, "पर आई, मैं क्या करूँ? पैसे कहाँ से आएँगे?"
उस दिन शारदा आई ने एक ऐसा कदम उठाया, जो कोई सगा भी शायद न उठाए। वह वापस मुंबई गईं और बिना किसी को बताए, अपनी छोटी सी पुश्तैनी ज़मीन का टुकड़ा बेच दिया, जिसे उन्होंने अपने बुढ़ापे के लिए सँभालकर रखा था।
अगले दिन, वह पैसों से भरा बैग लेकर रोहित के पास पहुँचीं और कहा, "यह ले। अपनी अम्मा का इलाज करा। और खबरदार, जो तूने पढ़ाई छोड़ी!"
रोहित स्तब्ध था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने कांपते हुए कहा, "आई... यह... आपने?"
आई ने उसकी पीठ पर एक ज़ोर का धप्पा मारा और बोली, "चुप कर! माँ सिर्फ़ जन्म देने वाली नहीं होती। और तू सिर्फ़ विमला का नहीं, मेरा भी बेटा है। चल, अब रोना बंद कर और अपनी अम्मा को फोन लगा।"
रोहित की अम्मा का ऑपरेशन सफल रहा। रोहित ने भी अपनी इंजीनियरिंग अच्छे नंबरों से पूरी की।
आज, रोहित एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर है। उसने अपनी अम्मा और आई, दोनों के लिए एक ही बिल्डिंग में दो फ्लैट खरीदे हैं, अगल-बगल। आज भी, जब वह ऑफिस से घर लौटता है, तो पहले अम्मा के पैर छूता है और फिर दौड़कर आई के गले लग जाता है।
उसकी ज़िंदगी में आज भी दो दुनियाएँ हैं। एक अम्मा की, जो उसे शांति और स्थिरता देती है। और एक आई की, जो उसे ज़िंदगी जीने का हौसला देती है। यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ का रिश्ता खून से नहीं, बल्कि स्नेह और अपनेपन की उन अनकही भावनाओं से बनता है, जो किसी भी परिभाषा से परे हैं।
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