दादी और पोती: दो पीढ़ियों के बीच एक अनकहा रिश्ता
कुछ रिश्ते उम्र के फासलों से परे होते हैं। वे समय के साथ और भी गहरे और मीठे हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पुरानी अचार की बरनी में रखा आम का अचार। यह कहानी है ऐसे ही एक रिश्ते की - एक दादी और पोती के रिश्ते की, जहाँ प्यार तो बहुत था, पर समझ की एक पतली सी दीवार थी, जिसे गिरना बाकी था।
यह कहानी है 80 वर्षीय सावित्री देवी, जिन्हें सब 'अम्मा' कहते थे, और उनकी 20 वर्षीय पोती, मीरा, की।
अम्मा की दुनिया उनके पुराने, देहाती घर, उनकी पूजा की किताबों और उनकी यादों में सिमटी हुई थी। मीरा, जो दिल्ली में एक बड़ी आईटी कंपनी में काम करती थी, की दुनिया लैपटॉप, स्मार्टफ़ोन और तेज रफ्तार ज़िंदगी से बनी थी।
यह दो अलग-अलग पीढ़ियों का संगम था, जो हर छुट्टी में एक छत के नीचे इकट्ठा होता था।
मीरा जब भी गाँव आती, तो उसे अपनी दादी का हर समय टोकना अच्छा नहीं लगता था।
"मीरा, यह क्या फटे हुए जीन्स पहन रखे हैं?" या "बेटा, फोन को एक तरफ रखकर हमारे पास भी बैठ जाया कर।"
मीरा को लगता था कि उसकी दादी उसे समझती नहीं हैं। उसे उनकी बातें पुरानी और पिछड़ी हुई लगती थीं। यह एक आम गलतफहमी थी, जो अक्सर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच पनप जाती है।
इस कहानी में एक और किरदार है, मीरा के पिता, राजेश। राजेश अपनी माँ का सम्मान भी करते थे और अपनी बेटी की आज़ादी को भी समझते थे, और हमेशा इन दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करते थे।
कहानी में मोड़ तब आया, जब मीरा की कंपनी ने उसे एक बड़े प्रोजेक्ट के लिए दो साल के लिए अमेरिका भेजने का फैसला किया। यह मीरा के करियर के लिए एक बहुत बड़ा मौका था। पर इसका मतलब था, दो साल के लिए अपने परिवार, और अपनी दादी से दूर जाना।
जब उसने यह बात घर पर बताई, तो उसके पिता और माँ तो बहुत खुश हुए, पर अम्मा चुप हो गईं। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
"अम्मा, आप खुश नहीं हैं?" मीरा ने पूछा।
"खुश क्यों नहीं हूँ, बेटा," उन्होंने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा। "जा, अपनी ज़िंदगी बना। हम बूढ़ों का क्या है, आज हैं, कल नहीं।"
उनकी इस बात ने मीरा के दिल में एक अपराधबोध भर दिया। उसे लगा कि उसकी दादी स्वार्थी हो रही हैं, वह उसकी तरक्की से खुश नहीं हैं।
जाने से एक रात पहले, मीरा अपनी दादी के कमरे में गई। वह चुपचाप अपनी पुरानी, लकड़ी की संदूकची को साफ कर रही थीं।
"अम्मा," मीरा ने कहा, "आप मुझसे नाराज़ हैं, है न?"
अम्मा ने बिना नज़रें उठाए कहा, "नहीं तो। मैं क्यों नाराज़ होऊँगी?"
"क्योंकि मैं आपको छोड़कर जा रही हूँ," मीरा की आवाज़ nghẹn ngat हो गई।
अम्मा ने संदूकची बंद की और अपनी पोती का हाथ थाम लिया। उनकी झुर्रियों वाली आँखों में आज आँसू थे।
"पगली," उन्होंने कहा, "मैं तुझसे नाराज़ नहीं, मैं तो बस डर रही हूँ। तू अकेली कैसे रहेगी उस अनजाने देश में? कौन ध्यान रखेगा तेरा? कौन तुझे डाँटेगा, जब तू खाना नहीं खाएगी?"
यह एक दादी का निःस्वार्थ प्रेम और त्याग था, जिसे मीरा आज तक स्वार्थ समझ रही थी।
"अम्मा, मैं हमेशा आपको फोन करूँगी," मीरा ने रोते हुए कहा।
"फोन पर मैं तेरा सिर कैसे सहलाऊँगी?" अम्मा ने एक मासूम सा सवाल पूछा।
उस रात, दादी और पोती के बीच की सारी दीवारें ढह गईं।
जाने से पहले, अम्मा ने मीरा के हाथ में एक छोटी सी, हाथ से सिली हुई पोटली दी। "इसमें मैंने तेरे लिए थोड़ी सी अजवाइन और हींग रखी है। पेट खराब हो, तो खा लेना। और यह... यह मेरी माँ की दी हुई चाँदी की एक छोटी सी पायल है। इसे हमेशा अपने पास रखना। यह तुझे हर बुरी नज़र से बचाएगी।"
मीरा के लिए वह पोटली दुनिया के किसी भी महंगे तोहफे से ज़्यादा कीमती थी।
दो साल बीत गए। मीरा ने अमेरिका में बहुत सफलता हासिल की। पर उन दो सालों में, एक भी दिन ऐसा नहीं था, जब उसे अपनी दादी की याद न आई हो। वह छोटी सी पायल हमेशा उसके पर्स में रहती, जो उसे अपनी जड़ों की, अपने परिवार की याद दिलाती।
जब वह दो साल बाद घर लौटी, तो वह एक बदली हुई लड़की थी। अब उसे अपनी दादी की रोक-टोक में गुस्सा नहीं, बल्कि प्यार नज़र आता था।
उसने अपनी दादी को कसकर गले से लगा लिया। "मैं वापस आ गई, अम्मा।"
अम्मा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "मेरा घर वापस आ गया।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि दादी और पोती का रिश्ता सिर्फ प्यार का नहीं, बल्कि दो अलग-अलग समयों को जोड़ने वाले एक खूबसूरत पुल का भी होता है। दादी हमें हमारी जड़ें याद दिलाती हैं, और पोती उन्हें भविष्य का आसमान दिखाती है।
कभी-कभी हमें लगता है कि हमारे बड़े हमें समझ नहीं रहे, पर सच तो यह है कि उनका हर शब्द, हर रोक-टोक, उनके उस गहरे डर और प्यार से निकलती है, जो वे हमारे लिए महसूस करते हैं। ज़रूरत है तो बस एक पल रुककर, उनकी खामोशी को सुनने की।
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