काशी के कण-कण में शिव

 

काशी के कण-कण में शिव

एलेक्स, न्यूयॉर्क का एक मशहूर फोटोग्राफर, अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उलझन में था। उसे दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीरें खींचने का जुनून था, लेकिन अब उसे अपनी तस्वीरों में आत्मा महसूस नहीं होती थी। उसकी हर तस्वीर परफेक्ट होती थी - सही एंगल, सही रोशनी, सही कंपोजीशन। पर वह खाली थी, भावनाओं से रहित।

एक दिन, अपने दादाजी की पुरानी डायरी पढ़ते हुए, उसे एक वाक्य मिला - "अगर तुम्हें आत्मा की तस्वीर खींचनी है, तो काशी जाओ। वहाँ के कण-कण में शिव बसते हैं।"

एलेक्स, जो धर्म और आध्यात्मिकता से कोसों दूर था, इस बात पर हँस पड़ा। पर उसके अंदर का कलाकार बेचैन था। इसी बेचैनी में वह अपना कैमरा उठाकर भारत के लिए निकल पड़ा, यह खोजने के लिए कि आखिर काशी के कण-कण में शिव का मतलब क्या है।

बनारस पहुँचकर एलेक्स को एक सांस्कृतिक झटका लगा। चारों तरफ भीड़, शोर, गंदगी और एक अजीब सी अव्यवस्था। उसे लगा कि वह गलत जगह आ गया है। उसने अपना कैमरा निकाला और मणिकर्णिका घाट की ओर चल पड़ा, जहाँ चिताएँ जल रही थीं। उसने सोचा, 'इससे ज़्यादा शक्तिशाली तस्वीर और क्या होगी?'

वह चिताओं की तस्वीरें खींचने लगा, पर उसे वही खालीपन महसूस हुआ। यह सिर्फ़ मृत्यु का एक ग्राफिक चित्रण था, इसमें कोई आत्मा नहीं थी।

निराश होकर वह एक चाय की दुकान पर बैठ गया। तभी उसकी नज़र एक बूढ़े मल्लाह पर पड़ी, जो अपनी छोटी सी नाव को गंगा के किनारे बाँध रहा था। उसके चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ थीं, पर आँखों में एक अजीब सी शांति थी। वह अपनी नाव को ऐसे सहला रहा था, जैसे वह कोई बेजान लकड़ी नहीं, बल्कि उसका अपना बच्चा हो।

एलेक्स ने अनजाने में ही अपना कैमरा उठाया और उस मल्लाह की एक तस्वीर खींच ली।

अगले कुछ दिन, एलेक्स मंदिरों और घाटों पर भटकता रहा, पर वह जान-बूझकर तस्वीरें नहीं खींच रहा था। वह बस देख रहा था, महसूस कर रहा था।

उसने देखा एक छोटी सी बच्ची को, जो अपनी माँ की डाँट खाकर रो रही थी, पर जैसे ही उसने गंगा में तैरती एक नाव को देखा, उसके आँसू मुस्कान में बदल गए।

उसने देखा एक युवा लड़के को, जो अपने बूढ़े, बीमार पिता को कंधे पर उठाकर बाबा विश्वनाथ के दर्शन कराने ले जा रहा था। उसके चेहरे पर थकान थी, पर आँखों में एक गहरी संतुष्टि थी।

उसने देखा एक विधवा औरत को, जो हर सुबह घाट की सीढ़ियों पर बैठकर घंटों गंगा को निहारती रहती थी, मानो वह नदी से अपनी सारी बातें कह रही हो।

धीरे-धीरे, एलेक्स को समझ आने लगा। काशी का शिव किसी मंदिर या मूर्ति में कैद नहीं है।

वह उस मल्लाह के अपनी नाव के प्रति प्रेम में है।
वह उस बच्ची की निर्दोष मुस्कान में है।
वह उस बेटे के अपने पिता के प्रति समर्पण में है।
वह उस विधवा की अटूट आस्था में है।

शिव यहाँ के लोगों के रोज़मर्रा के जीवन में हैं - उनके दुख में, उनके सुख में, उनकी मेहनत में और उनकी अविचल श्रद्धा में।

एक शाम, एलेक्स दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा आरती देख रहा था। हज़ारों दीयों की रोशनी, मंत्रों का जाप, घंटियों की ध्वनि - माहौल में एक अद्भुत ऊर्जा थी। उसने अपना कैमरा निकाला, पर आरती की भव्यता की तस्वीर खींचने की बजाय, उसने अपना लेंस भीड़ की ओर घुमा दिया।

उसने एक बूढ़ी औरत की तस्वीर खींची, जिसकी बंद आँखों से आँसू बह रहे थे, पर होठों पर एक शांत मुस्कान थी।

उसने एक छोटे बच्चे की तस्वीर खींची, जो अपने पिता के कंधे पर बैठा, आश्चर्य से टिमटिमाते दीयों को देख रहा था।

उसने एक विदेशी जोड़े की तस्वीर खींची, जो हाथ में हाथ डाले, इस दिव्य अनुभव में खोए हुए थे।

जब वह वापस न्यूयॉर्क लौटा, तो उसने अपनी काशी की तस्वीरों की एक प्रदर्शनी लगाई। प्रदर्शनी का शीर्षक था - "Kashi: Finding Shiva in Every Soul" (काशी: हर आत्मा में शिव)।

उस प्रदर्शनी में न तो मंदिरों की भव्य तस्वीरें थीं, न ही जलती चिताओं की। उसमें थीं आम लोगों की तस्वीरें - उनके भावों की, उनके रिश्तों की, उनकी भावनाओं की।

एक कला समीक्षक ने उसकी तस्वीरों को देखकर लिखा, "एलेक्स ने हमें वह काशी दिखाई है जो गाइडबुक्स में नहीं मिलती। उसने हमें सिखाया है कि शिव कोई देवता नहीं, बल्कि एक एहसास हैं - प्रेम, करुणा, समर्पण और शांति का। और यह एहसास काशी के कण-कण में बसता है।"

उस दिन एलेक्स को अपने दादाजी की बात का असली मतलब समझ आया था। उसने सिर्फ तस्वीरें नहीं खींची थीं, उसने आत्मा को कैमरे में कैद करना सीख लिया था।

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