नई पीढ़ी के सपने बनाम पुरानी सोच: एक छत के नीचे दो दुनियाएँ

 

नई पीढ़ी के सपने बनाम पुरानी सोच: एक छत के नीचे दो दुनियाएँ

तिवारी जी का घर, लखनऊ की एक पुरानी गली में, दो अलग-अलग ज़मानों का जीता-जागता सबूत था। घर के मुखिया, श्री रमाकांत तिवारी, एक रिटायर्ड बैंक मैनेजर थे। उनके लिए दुनिया नियमों, परंपराओं और 'लोग क्या कहेंगे' के इर्द-गिर्द घूमती थी। यह पुरानी सोच की दुनिया थी।

उसी घर में रहती थी उनकी पोती, आरुषि। बीस साल की आरुषि, जिसकी आँखों में नई पीढ़ी के सपने थे। वह एक 'गेम डेवलपर' बनना चाहती थी। उसके लिए दुनिया कंप्यूटर कोड, ग्राफिक्स और अपनी एक अलग पहचान बनाने का नाम थी।

यह कहानी है इन दो दुनियाओं के टकराव की, जो एक ही छत के नीचे रहती थीं।

आरुषि दिन-रात अपने लैपटॉप पर लगी रहती। वह नए-नए गेम्स के कॉन्ससेप्ट बनाती, कोडिंग सीखती और ऑनलाइन गेमिंग टूर्नामेंट्स में हिस्सा लेती। तिवारी जी जब भी उसे लैपटॉप पर देखते, तो उनका खून खौल उठता।

"यह क्या दिन भर खट-पट करती रहती हो?" वह अक्सर कहते। "लड़कियों का काम सिलाई-कढ़ाई सीखना होता है, घर-गृहस्थी सँभालना होता है। यह कंप्यूटर तुम्हारा भविष्य नहीं बनाएगा।"

आरुषि शांति से जवाब देती, "दादाजी, यह सिर्फ़ कंप्यूटर नहीं, मेरी दुनिया है। मैं एक दिन भारत की सबसे बड़ी गेम डेवलपर बनूँगी।"

तिवारी जी हँस पड़ते। "गेम डेवलपर? यह भी कोई काम है? लोग हँसेंगे हम पर। हमारी नाक कटवाएगी यह लड़की।"

यह नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष रोज़ की बात थी। तिवारी जी चाहते थे कि आरुषि एम.ए. करे, फिर उसकी शादी एक अच्छे, सरकारी नौकरी वाले लड़के से हो जाए। उनकी नज़र में यही एक लड़की के लिए सुरक्षित और सम्मानित जीवन था।

कहानी में मोड़ तब आया, जब आरुषि को एक बहुत बड़े नेशनल गेमिंग कॉम्पिटिशन के फाइनल राउंड के लिए चुना गया, जो मुंबई में होने वाला था। यह उसके सपनों की ओर पहला बड़ा कदम था।

उसने जब घर में यह बताया, तो एक भूचाल आ गया।

"मुंबई? अकेली? नामुमकिन!" तिवारी जी ने अपना फैसला सुना दिया। "हमारे खानदान की लड़कियाँ ऐसे अकेले शहरों में नहीं घूमतीं। यह हमारी इज़्ज़त के खिलाफ है।"

आरुषि ने बहुत मिन्नतें कीं, पर तिवारी जी टस से मस नहीं हुए। उस रात, आरुषि ने फैसला किया कि वह अपने सपनों को ऐसे नहीं मरने देगी। उसने चुपचाप अपना बैग पैक किया और सुबह होने से पहले, एक चिट्ठी छोड़कर मुंबई के लिए निकल गई।

चिट्ठी में लिखा था - "दादाजी, मैं आपकी इज़्ज़त कम करने नहीं, बल्कि उसे और बढ़ाने जा रही हूँ। बस एक बार मुझ पर भरोसा कीजिए।"

तिवारी जी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने घर में ऐलान कर दिया कि आज से आरुषि से उनका कोई रिश्ता नहीं।

मुंबई में, आरुषि ने कॉम्पिटिशन में दिन-रात एक कर दिया। वह अकेली थी, पर उसके सपने उसके साथ थे। फाइनल के दिन, जब वह स्टेज पर अपनी गेम प्रेजेंट कर रही थी, तो उसकी आँखें अपने दादाजी को ढूँढ़ रही थीं। वह जानती थी कि वे नहीं आएँगे, पर दिल में एक छोटी सी उम्मीद थी।

उधर लखनऊ में, तिवारी जी गुस्से में कमरे में बंद थे। लेकिन आरुषि का छोटा भाई, रोहन, चुपके से अपने मोबाइल पर कॉम्पिटITION का लाइव स्ट्रीम देख रहा था। उसने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।

"दादाजी, बस एक बार देख लीजिए... दीदी स्टेज पर है।"

तिवारी जी ने पहले तो मना कर दिया, पर फिर न जाने क्या सोचकर उन्होंने रोहन के मोबाइल पर एक नज़र डाली।

स्क्रीन पर उनकी पोती, आरुषि, हज़ारों लोगों के सामने पूरे आत्मविश्वास के साथ बोल रही थी। वह बता रही थी कि कैसे उसने एक ऐसा गेम बनाया है जो भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित है, ताकि नई पीढ़ी अपने कल्चर को एक नए और दिलचस्प तरीके से जान सके।

तिवारी जी सुनते रहे। उन्होंने देखा कि आरुषि के काम की कितनी तारीफ हो रही है। जजों ने उसके आइडिया को 'क्रांतिकारी' बताया। और फिर, वह पल आया जब विजेता का नाम घोषित हुआ - "और इस साल की विनर हैं... आरुषि तिवारी!"

आरुषि की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। उसने जब अपनी ट्रॉफी ली, तो माइक पर कहा, "मैं यह अवॉर्ड अपने दादाजी को समर्पित करना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे हमेशा अनुशासन और मेहनत का पाठ पढ़ाया। दादाजी, मुझे उम्मीद है आज आपको मुझ पर गर्व होगा।"

लखनऊ में, तिवारी जी की बूढ़ी आँखों से भी आँसू बह रहे थे। पर ये आँसू गुस्से के नहीं, गर्व के थे। उन्हें आज समझ आया कि वे गलत थे। नई पीढ़ी के सपने अलग हो सकते हैं, पर वे गलत नहीं होते। दुनिया बदल रही है, और अगर वे अपनी सोच नहीं बदलेंगे, तो वे अपने बच्चों की खुशियों से बहुत दूर रह जाएँगे।

उस दिन, पुरानी सोच ने हार नहीं मानी, बल्कि उसने अपने दरवाज़े नई पीढ़ी के लिए खोल दिए।

जब आरुषि ट्रॉफी लेकर घर लौटी, तो वह डर रही थी कि दादाजी क्या कहेंगे। लेकिन दरवाज़े पर तिवारी जी खुद उसकी आरती की थाली लिए खड़े थे।

उन्होंने आरुषि के सिर पर हाथ रखा और कहा, "मुझे माफ कर दे, बेटी। मैं ही गलत था। तूने हमारी इज़्ज़त घटाई नहीं, उसे आसमान तक पहुँचा दिया है।"

उस दिन, उस एक छत के नीचे दो अलग-अलग दुनियाएँ मिलीं और एक हो गईं। यह कहानी हमें सिखाती है कि पीढ़ी का अंतर सोच का अंतर ज़रूर है, पर प्यार और संवाद का पुल बनाकर इसे हमेशा पाटा जा सकता है।

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