बच्चे और सपने: पारिवारिक संघर्ष की कहानी

इलाहाबाद की एक शांत गली में, जहाँ पुराने बरगद के पेड़ आज भी पीढ़ियों की कहानियाँ सुनाते थे, वहाँ संगीत शिक्षक श्री आलोक माथुर का घर था। उनका घर सुरों से बसा था। सुबह की शुरुआत रियाज़ से होती और शाम तानपुरे की गूँज पर खत्म होती। आलोक जी का एक ही सपना था - कि उनका बेटा, अथर्व, एक महान शास्त्रीय गायक बने और उनके घराने की संगीत विरासत को आगे बढ़ाए।

यह कहानी है एक पिता की उम्मीदों की, एक बेटे के अपने सपनों की, और उस माँ की, जो इन दोनों के बीच एक नाजुक पुल बनी हुई थी।

अथर्व, जो अब सत्रह साल का था, अपने पिता से बहुत प्यार करता था और उनका बहुत सम्मान करता था। उसने बचपन से संगीत सीखा था, और उसकी आवाज़ में सचमुच जादू था। लेकिन उसका दिल संगीत में नहीं, बल्कि कैनवास और रंगों में बसता था। वह एक चित्रकार, एक आर्टिस्ट बनना चाहता था। वह घंटों अपनी छोटी सी अटारी में बैठकर स्केच बनाता, जहाँ उसने अपनी एक अलग दुनिया बसा रखी थी।

यह बच्चों और सपनों के बीच का एक मौन संघर्ष था। अथर्व जानता था कि अगर उसने अपने दिल की बात अपने पिता को बताई, तो उनका दिल टूट जाएगा।

उसकी माँ, सुनीता, अपने बेटे के इस राज़ को जानती थी। वह अक्सर चुपके से उसकी अटारी में जाती और उसके बनाए हुए चित्रों को देखकर हैरान रह जाती। वह अपने पति की संगीत के प्रति दीवानगी को भी समझती थीं और अपने बेटे की कला के प्रति जुनून को भी। वह हमेशा बीच का रास्ता खोजने की कोशिश करतीं।

"बेटा, अपने पिताजी को बता क्यों नहीं देता?" वह अक्सर कहतीं। "वह नाराज़ ज़रूर होंगे, पर समझ भी जाएँगे।"

"कैसे समझें-गे, माँ?" अथर्व की आवाज़ में एक बेबसी होती थी। "उनके लिए संगीत ही सब कुछ है। मेरी चित्रकारी उन्हें बस एक बचकाना शौक लगेगी।"

कहानी में मोड़ तब आया, जब शहर में एक बहुत बड़ी संगीत प्रतियोगिता की घोषणा हुई। आलोक जी के लिए यह एक सुनहरा मौका था। उन्होंने अथर्व का नाम लिखवा दिया और उसकी तैयारी में दिन-रात एक कर दिए।

"अथर्व, यह मौका हाथ से नहीं जाना चाहिए," वह कहते। "यह तुम्हारे भविष्य का सवाल है।"

अथर्व अपने पिता का मन रखने के लिए रियाज़ तो करता, पर उसका मन कहीं और ही भटकता रहता। उसका ध्यान सुरों पर नहीं, बल्कि अपनी अटारी में रखे उस अधूरे कैनवास पर था, जिस पर वह अपनी माँ की एक तस्वीर बना रहा था।

प्रतियोगिता से एक दिन पहले, आलोक जी ने अथर्व को अपने पास बुलाया और उसके हाथ में एक पुराना, मखमल का डिब्बा रखा।

"यह तुम्हारे दादाजी का तानपूरा है," उन्होंने एक भावुक आवाज़ में कहा। "उन्होंने यह मुझे तब दिया था, जब मैंने पहली बार मंच पर गाया था। आज मैं यह तुम्हें दे रहा हूँ। कल जब तुम गाओगे, तो महसूस करना कि तुम्हारे साथ तुम्हारे पुरखों का आशीर्वाद भी गा रहा है।"

यह सुनकर अथर्व का दिल बोझ से भर गया। वह अपने पिता की उम्मीदों के बोझ तले दब रहा था। वह उन्हें धोखा नहीं देना चाहता था, पर वह अपने सपनों का गला भी नहीं घोंट सकता था।

उस रात, उसने एक बड़ा फैसला किया।

प्रतियोगिता के दिन, जब मंच पर अथर्व का नाम पुकारा गया, तो वह नहीं आया। आलोक जी का चेहरा चिंता और फिर गुस्से से लाल हो गया। उन्हें लगा जैसे उनके बेटे ने आज भरे समाज में उनकी नाक कटवा दी है।

तभी, हॉल की बड़ी स्क्रीन पर कुछ तस्वीरें चलने लगीं।

पहली तस्वीर एक संगीत शिक्षक की थी, जो बड़ी लगन से एक छोटे बच्चे को हारमोनियम सिखा रहा था। फिर एक माँ की तस्वीर, जो चुपचाप अपने बेटे के लिए चाय लेकर आती है। फिर एक बेटे की तस्वीर, जो अपने पिता के सपनों के बोझ और अपने जुनून के बीच फँसा हुआ है।

यह तस्वीरें किसी और ने नहीं, अथर्व ने बनाई थीं। यह उसके पारिवारिक संघर्ष की कहानी थी, जिसे उसने अपने रंगों के माध्यम से बयान किया था।

आखिरी तस्वीर में, एक लड़का अपने पिता के पैर छू रहा था, और उसके हाथ में तानपूरा नहीं, बल्कि एक पेंटिंग ब्रश था।

हॉल में सन्नाटा छा गया। आलोक जी स्तब्ध होकर स्क्रीन को देख रहे थे।

तभी अथर्व मंच पर आया, उसके हाथ में माइक था।

"मुझे माफ कर दीजिए, पिताजी," उसने कांपती आवाज़ में कहा। "मैं एक अच्छा गायक नहीं बन सकता, क्योंकि मेरी आत्मा सुरों में नहीं, रंगों में बसती है। पर मैं वादा करता हूँ, मैं एक ऐसा चित्रकार बनूँगा, जो आपकी हर भावना को, आपके हर सुर को अपने कैनवास पर ज़िंदा कर देगा। मैं आपकी विरासत को आगे ज़रूर बढ़ाऊँगा, पर अपने तरीके से।"

उसने अपनी माँ की वह अधूरी पेंटिंग दिखाई, जो उसने बनाई थी। उसे देखकर सुनीता जी की आँखों से आँसू बहने लगे।

आलोक जी की आँखों में गुस्सा नहीं, एक गहरी समझ थी। आज पहली बार, उन्होंने अपने बेटे की आवाज़ नहीं, उसकी आत्मा को सुना था। उन्हें समझ आया कि वह अपने बेटे पर अपना सपना थोप रहे थे, जबकि उनके बेटे ने तो अपना एक नया, और भी खूबसूरत सपना बुन लिया था।

वह धीरे-धीरे मंच पर चढ़े और अपने बेटे को गले से लगा लिया।

"मुझे माफ कर दे, बेटा," उन्होंने कहा। "मैं ही गलत था। एक पिता का सपना अपने बच्चे को अपनी परछाई बनाना नहीं, बल्कि उसे इतना बड़ा बनाना होता है कि उसकी अपनी एक अलग पहचान हो।"

उस दिन, उस मंच पर एक बेटे ने प्रतियोगिता नहीं, बल्कि अपने पिता का दिल जीता था।

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