34,500 लड़कियों की मदद करने वाली असली हीरोइन सुधाताई

 34,500 लड़कियों की मदद करने वाली असली हीरोइन सुधाताई


सुधाताई, महाराष्ट्र के एक छोटे से, सूखे गाँव की एक साधारण सी दिखने वाली महिला थीं। उनकी उम्र पचास के पार थी, साड़ी का पल्लू हमेशा सिर पर रहता था और उनके चेहरे पर समय की लिखी हुई झुर्रियाँ थीं। वह कोई सेलिब्रिटी नहीं थीं, न ही कोई अमीर समाजसेवी। वह एक असली हीरोइन थीं, जिनकी कहानी किसी अखबार के पहले पन्ने पर नहीं, बल्कि हज़ारों लड़कियों के दिलों पर लिखी थी।
यह कहानी शुरू होती है आज से बीस साल पहले, जब सुधाताई की अपनी बेटी, आरती, पंद्रह साल की थी। आरती पढ़ने में बहुत होशियार थी, उसकी आँखों में डॉक्टर बनने का सपना था। लेकिन गाँव में लड़कियों के लिए सिर्फ आठवीं तक का ही स्कूल था। आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना पड़ता, जो गाँव के रिवाजों और गरीबी, दोनों के खिलाफ था।
सुधाताई ने अपने पति से बहुत मिन्नतें कीं, पर समाज के डर और पैसों की तंगी के आगे वे भी बेबस थे। आरती का सपना टूट गया और कुछ ही महीनों में उसकी शादी कर दी गई। अपनी बेटी की आँखों में बुझते हुए सपनों की आग ने सुधाताई के अंदर एक ज्वाला जला दी।
उन्होंने फैसला किया कि जो उनकी बेटी के साथ हुआ, वह इस गाँव की किसी और बेटी के साथ नहीं होने देंगी।
यह एक अकेली औरत की लड़ाई थी, एक ऐसी लड़ाई जिसे जीतना लगभग नामुमकिन था। सबसे पहले, उन्होंने अपने घर के आँगन में पांच लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया। वह उन्हें अक्षर ज्ञान देतीं और हिसाब-किताब सिखातीं। धीरे-धीरे, यह संख्या बढ़ने लगी। जब आँगन छोटा पड़ गया, तो उन्होंने गाँव के पुराने, खंडहर हो चुके पंचायत घर की सफाई की और उसे एक पाठशाला का रूप दे दिया।
यह सफर आसान नहीं था। गाँव के पुरुषों ने उनका विरोध किया। उन्हें ताने मारे गए - "औरतों का काम चूल्हा-चौका है, पढ़ा-लिखाकर क्या करोगी?" "लड़कियों को पर लग जाएँगे, वे हाथ से निकल जाएँगी।"
लेकिन सुधाताई डटी रहीं। उन्होंने घर-घर जाकर माँओं को समझाया। उन्होंने कहा, "तुम्हारी बेटी के हाथ में झाड़ू नहीं, कलम दो। वह सिर्फ अपना ही नहीं, तुम्हारी सात पीढ़ियों का भविष्य सँवारेगी।"
उनकी लगन और मेहनत रंग लाने लगी। कुछ सालों में, उन्होंने गाँव वालों की मदद से आठवीं से आगे, दसवीं तक का स्कूल खुलवा लिया। यह उनकी पहली बड़ी जीत थी।
लेकिन सुधाताई यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने देखा कि कई लड़कियाँ पैसों की कमी के कारण स्कूल छोड़ देती हैं। इसके लिए, उन्होंने एक अनोखा तरीका निकाला। उन्होंने गाँव की महिलाओं को इकट्ठा किया और एक छोटा सा बचत समूह बनाया। वे सब मिलकर पापड़, अचार और मसाले बनातीं और सुधाताई उन्हें पास के शहर में जाकर बेचतीं। इससे जो भी आमदनी होती, वह लड़कियों की शिक्षा पर खर्च होती - उनकी फीस, किताबें और यूनिफॉर्म के लिए।
धीरे-धीरे, उनका यह छोटा सा आंदोलन आस-पास के गाँवों में भी फैल गया। एक अकेली महिला से शुरू हुआ यह कारवाँ अब सैकड़ों महिलाओं का संगठन बन चुका था। उन्होंने न सिर्फ लड़कियों की पढ़ाई, बल्कि उनके स्वास्थ्य, स्वच्छता और आत्मरक्षा के लिए भी काम करना शुरू कर दिया।
आज, बीस साल बाद, सुधाताई के प्रयासों से बने संगठन ने 34,500 से ज़्यादा लड़कियों की मदद की है। इनमें से कई लड़कियाँ आज डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर और पुलिस ऑफिसर हैं। वे न सिर्फ अपने पैरों पर खड़ी हैं, बल्कि अब वे सुधाताई के मिशन को आगे बढ़ा रही हैं।
सुधाताई आज भी वैसी ही हैं - एक साधारण सी साड़ी पहने, चेहरे पर वही शांत मुस्कान। जब कोई पत्रकार उनसे पूछता है कि उन्होंने यह सब कैसे किया, तो वे बस इतना कहती हैं, "मैंने कुछ नहीं किया। मैंने तो बस एक बेटी के बुझे हुए सपने की राख से एक छोटी सी चिंगारी उठाई थी, उसे हवा तो इन हज़ारों बेटियों ने खुद दी है।"
वह कोई फिल्मी हीरोइन नहीं हैं, जिनके पोस्टर लगते हों। वह एक असली हीरोइन हैं, जिनका काम बोलता है। उनकी कहानी हमें बताती है कि दुनिया बदलने के लिए बड़े-टाइटल्स या ढेर सारे पैसों की ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरत होती है एक नेक इरादे, अटूट साहस और उस एक चिंगारी की, जो अँधेरे में रोशनी की उम्मीद जगा सके। सुधाताई वही उम्मीद हैं।

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