मन में भ्रम मत पालिए:यहाँ न अपना कोय

 मन में भ्रम मत पालिए:यहाँ न अपना कोय  


"यह कहानी है विश्वास की, धोखे की, और उस कड़वे सच की जिसे हम अक्सर जानते हुए भी अनदेखा कर देते हैं।"

लाला हरकिशन दास, पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक में मसालों के एक पुश्तैनी कारोबारी थे। उनकी उम्र साठ के पार थी, और उनका दिल सोने का था। वह हर किसी पर बहुत जल्दी भरोसा कर लेते थे। उनके लिए दुनिया वैसी ही थी, जैसी वह खुद थे - सीधी, सरल और ईमानदार। उनका एक ही बेटा था, नीरज, जो पढ़-लिखकर अमेरिका में बस गया था और अपने पिता के इस 'पुराने' कारोबार में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

लाला जी का दाहिना हाथ था उनका मुनीम, बंशीलाल। बंशीलाल पिछले तीस सालों से उनके साथ था। वह लाला जी के गाँव का ही था। लाला जी ने ही उसे काम सिखाया था और अपने छोटे भाई की तरह माना था। बंशीलाल को दुकान की हर तिजोरी की चाबी और हर बही-खाते का राज़ पता था। लाला जी अक्सर कहते, "बंशी मेरा मुनीम नहीं, मेरे घर का दूसरा बेटा है।"

यह कहानी इन्हीं दो किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है, और साथ में है लाला जी की पत्नी, सावित्री जी, जो हमेशा अपने पति को बंशीलाल पर आँख मूँदकर भरोसा करने से टोकती रहती थीं।

"आप इतना भरोसा मत किया कीजिए उस पर," सावित्री जी अक्सर कहतीं। "आदमी की नीयत बदलते देर नहीं लगती।"

लाला जी हँसकर टाल देते, "अरे भगवन, तुम भी क्या बात करती हो! बंशी ऐसा कर ही नहीं सकता। मैंने उसे अपनी आँखों के सामने बड़ा होते देखा है।"

मन में भ्रम मत पालिए, यहाँ न अपना कोय। यह पंक्ति सावित्री जी के मन में अक्सर गूँजती, पर वह अपने पति की खुशी के लिए चुप रह जातीं।

समय बीता। लाला जी अब बूढ़े हो रहे थे और दुकान का ज़्यादातर काम बंशीलाल ही देखता था। लाला जी बस सुबह दुकान पर आते, कुछ घंटे बैठते और फिर घर चले जाते। उन्हें अपने 'भाई' जैसे मुनीम पर पूरा भरोसा था।

एक दिन, लाला जी ने अपनी ज़िंदगी की सारी जमा-पूँजी लगाकर एक बड़ी ज़मीन का सौदा किया। वह उस ज़मीन पर एक धर्मशाला बनवाना चाहते थे, यह उनकी स्वर्गीय माँ का सपना था। ज़मीन के बयाने के लिए बीस लाख रुपये देने थे, जो उन्होंने अपनी तिजोरी में रखे थे। इस बात की खबर सिर्फ लाला जी, सावित्री जी और बंशीलाल को थी।

अगली सुबह जब लाला जी बयाना देने के लिए दुकान पहुँचे, तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। दुकान का ताला टूटा हुआ था, और तिजोरी खुली और खाली पड़ी थी। बीस लाख रुपये गायब थे।

लाला जी वहीं ज़मीन पर बैठ गए। यह सिर्फ पैसों की चोरी नहीं थी, यह उनके सपनों की, उनकी माँ की आखिरी इच्छा की चोरी थी।

पुलिस आई, पूछताछ हुई। पर कोई सुराग नहीं मिला। बंशीलाल भी वहाँ खड़ा था, उसके चेहरे पर दुख और चिंता के भाव थे। वह बार-बार कह रहा था, "कैसे हो गया यह, मालिक? मैं तो कल रात ताला लगाकर ही गया था।"

लाला जी ने उसकी तरफ देखा और कहा, "कोई बात नहीं, बंशी। जो होना था, हो गया। भगवान की यही मर्ज़ी होगी।" उन्होंने अपने सबसे करीबी पर शक करने की बात सोची भी नहीं।

लेकिन सावित्री जी का दिल कुछ और ही कह रहा था।

उस घटना के कुछ हफ्ते बाद, सावित्री जी को खबर मिली कि बंशीलाल के गाँव में उसका एक आलीशान घर बन रहा है और उसकी बेटी की शादी शहर के सबसे बड़े होटल में तय हुई है। एक साधारण मुनीम के पास अचानक इतना पैसा कहाँ से आया?

उन्होंने यह बात लाला जी को बताई। पहली बार, लाला जी के मन में शक का एक छोटा सा बीज अंकुरित हुआ। पर उनका दिल यह मानने को तैयार नहीं था। "नहीं, सावित्री। यह सच नहीं हो सकता। वह ऐसा नहीं कर सकता।"

करो भरोसा जाहि पर, गला काट ले सोय। यह दोहा अब लाला जी के कानों में गूँजने लगा था।

उन्होंने फैसला किया कि वह खुद सच का पता लगाएँगे। वह बिना बताए बंशीलाल के गाँव पहुँचे। वहाँ जाकर जो उन्होंने देखा, उससे उनका कलेजा मुँह को आ गया। बंशीलाल का सच में एक नया, बड़ा घर बन रहा था। गाँव वालों ने बताया कि 'बंशी की तो किस्मत खुल गई है, शहर में कोई लॉटरी लगी है उसकी।'

लाला जी का भ्रम टूट चुका था। जिस इंसान को उन्होंने अपना बेटा माना, जिसे अपने घर और कारोबार की हर चाबी सौंपी, उसी ने उनकी पीठ में छुरा घोंपा था। धोखा सिर्फ पैसों का नहीं था, धोखा उन तीस सालों के विश्वास का था, उस अपनेपन का था।

वह चुपचाप वापस लौट आए। उनके चेहरे पर अब कोई भाव नहीं था। वह एक ज़िंदा लाश की तरह लग रहे थे।

अगले दिन, जब बंशीलाल दुकान पर आया और हमेशा की तरह उनके पैर छूने के लिए झुका, तो लाला जी ने उसे रोक दिया।

उन्होंने बड़ी शांत, पर कांपती हुई आवाज़ में कहा, "बस, बंशीलाल। अब और नहीं।"

बंशीलाल का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।

लाला जी ने कहा, "मैंने तुम्हें भाई माना, बेटा माना... और तुमने? तुमने तो मेरी माँ का सपना ही चुरा लिया। पैसे ले लिए होते, तो शायद मैं सह भी लेता। पर तुमने तो मेरा विश्वास ही मार डाला।"

उन्होंने पुलिस को नहीं बुलाया। कोई शिकायत नहीं की। उन्होंने बस बंशीलाल को दुकान की चाबियाँ वापस करने को कहा।

"जाओ, बंशीलाल," उन्होंने कहा, "और अपने नए घर में खुश रहो। पर याद रखना, जो नींव धोखे पर रखी जाती है, वह ज़्यादा दिन टिकती नहीं।"

बंशीलाल बिना कुछ कहे, सिर झुकाए वहाँ से चला गया।

उस दिन के बाद, लाला हरकिशन दास बदल गए। वह अब भी ईमानदार थे, पर अब उनके दिल में वह भोलापन नहीं था। उन्होंने एक कड़वा सबक सीखा था - कि इस दुनिया में हर किसी पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं करना चाहिए।

यह कहानी हमें सिखाती है कि विश्वास रिश्तों की नींव है, पर जब यही विश्वास अंधा हो जाता है, तो वह हमें सबसे गहरा ज़ख्म भी दे सकता है। कभी-कभी, जिन पर हम सबसे ज़्यादा भरोसा करते हैं, वही हमारे भरोसे का गला घोंट देते हैं, और यह सीख हमें ज़िंदगी की सबसे बड़ी कीमत चुकाकर ही मिलती है।

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