पितृ पक्ष: यादों का तर्पण
पंडित दीनानाथ शास्त्री के लिए पितृ पक्ष साल का सबसे महत्वपूर्ण समय होता था। वे अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए पूरे सोलह दिन कठोर नियमों का पालन करते - ज़मीन पर सोना, एक समय भोजन करना और हर दिन तर्पण देना। उनका मानना था कि इन दिनों में हमारे पितर धरती पर आते हैं और हमें आशीर्वाद देते हैं।
यह कहानी है पंडित जी की, उनके इकलौते बेटे, प्रकाश की, और उनकी बहू, सुनीता की। यह कहानी है उस पीढ़ी के अंतराल की, जहाँ एक तरफ गहरी आस्था है, और दूसरी तरफ आधुनिक तर्क।
प्रकाश, जो दिल्ली में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता था, इन परंपराओं को बस एक औपचारिकता मानता था। वह हर साल पितृ पक्ष में छुट्टी लेकर गाँव आता था, पर सिर्फ़ अपने पिता के मन के लिए। उसे इन कर्मकांडों में कोई विश्वास नहीं था।
"पापा," वह अक्सर कहता, "आत्मा, पितर... यह सब सिर्फ़ मन का वहम है। हमें गरीबों को दान करना चाहिए, वह ज़्यादा पुण्य का काम है। यह कौओं को खीर खिलाने से क्या होगा?"
पंडित जी बस मुस्कुरा देते। "बेटा, दान अपनी जगह है और श्राद्ध अपनी जगह। यह सिर्फ़ कौओं को खिलाना नहीं, यह अपनी जड़ों को याद करना है। यह उस कड़ी को सम्मान देना है, जिसकी वजह से आज हम हैं।"
सुनीता, प्रकाश की पत्नी, इन दोनों के बीच एक पुल की तरह थी। वह पढ़ी-लिखी और आधुनिक थी, पर अपनी सास से सीखे संस्कारों का भी मान रखती थी। वह अपने ससुर की आस्था को समझती थी और अपने पति के तर्कों को भी।
इस साल पितृ पक्ष में, एक ऐसी घटना घटी जिसने प्रकाश की सोच को झकझोर कर रख दिया।
पंडित जी के पिता, यानि प्रकाश के दादाजी, की मृत्यु एक दुर्घटना में हुई थी। उनके मन में हमेशा एक कसक रहती थी कि वह अपने पिता की आखिरी इच्छा पूरी नहीं कर पाए थे। उनके पिता हमेशा से गाँव के पुराने, जर्जर हो चुके स्कूल की मरम्मत करवाना चाहते थे, ताकि गाँव के बच्चों को पढ़ने के लिए दूर न जाना पड़े।
इस साल, श्राद्ध के मुख्य दिन, जब पंडित जी अपने पिता का पसंदीदा भोजन बनवा रहे थे, तो गाँव का सरपंच उनके पास आया।
"पंडित जी," उसने चिंता से कहा, "सरकार ने स्कूल की मरम्मत के लिए जो ग्रांट पास की थी, वह किसी अफसर की लापरवाही की वजह से अटक गई है। अब तो अगले साल ही कुछ हो पाएगा।"
यह सुनकर पंडित जी का चेहरा उतर गया। उन्हें लगा जैसे वह एक बार फिर अपने पिता के सामने हार गए हैं। उनकी आँखों में गहरी निराशा थी, जिसे प्रकाश ने पढ़ लिया।
उस दिन, तर्पण करते समय, पंडित जी की आँखों से आँसू बह रहे थे। उन्होंने हाथ जोड़कर अपने पितरों से प्रार्थना की, "हे पितृ देव, मुझे क्षमा करना। मैं इस बार भी आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाया।"
प्रकाश यह सब दूर से देख रहा था। उसे पहली बार अपने पिता का दर्द महसूस हुआ। उसे समझ आया कि यह सिर्फ़ एक परंपरा नहीं, बल्कि एक बेटे की अपने पिता के प्रति गहरी भावना है, एक अधूरा वादा है जिसे वह पूरा करना चाहता है।
उस रात प्रकाश सो नहीं पाया। उसके कानों में अपने पिता के शब्द गूँज रहे थे। अगले दिन, वह बिना किसी को कुछ बताए, अपनी गाड़ी लेकर जिले के हेडक्वार्टर के लिए निकल गया।
उसने अपनी कंपनी से कुछ दिन की छुट्टी ले ली थी। उसने पता लगाया कि फाइल किस सरकारी दफ्तर में और किस अफसर के पास अटकी हुई है। वह दिन भर एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर के चक्कर काटता रहा। उसे बाबुओं के रूखे व्यवहार और सिस्टम की धीमी चाल का सामना करना पड़ा।
शाम को जब वह थका-हारा घर लौटता, तो सुनीता उसके लिए गर्म पानी और खाना तैयार रखती। वह उससे कुछ पूछती नहीं थी, बस खामोशी से उसका साथ देती। वह जानती थी कि उसका पति एक नई लड़ाई लड़ रहा है - अपने पिता के विश्वास के लिए।
तीन दिनों की अथक भाग-दौड़ के बाद, प्रकाश उस बड़े अफसर तक पहुँचने में कामयाब हो गया।
"सर," प्रकाश ने बड़ी विनम्रता से कहा, "यह सिर्फ़ एक स्कूल का सवाल नहीं है, यह मेरे दादाजी का सपना है और मेरे पिता की ज़िंदगी भर की पूजा का फल है। पितृ पक्ष चल रहा है, और मैं अपने पिता को उनके पिता के श्राद्ध पर यह तोहफा देना चाहता हूँ।"
शायद प्रकाश की बातों की सच्चाई या उसकी आँखों की ईमानदारी ने उस अफसर के दिल को छू लिया। उसने उसी दिन फाइल को मंजूरी दे दी।
जिस दिन प्रकाश ग्रांट की मंजूरी का पत्र लेकर घर पहुँचा, उस दिन पितृ पक्ष का आखिरी दिन था।
उसने वह पत्र अपने पिता, पंडित दीनानाथ, के हाथों में रख दिया। "पापा, यह दादाजी के लिए मेरा तर्पण है।"
पंडित जी कांपते हाथों से उस पत्र को देख रहे थे। उनकी आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे, पर ये आँसू दुख के नहीं, बल्कि गर्व और संतोष के थे। उन्होंने अपने बेटे को कसकर गले से लगा लिया। सालों बाद, एक पिता और पुत्र का ऐसा आलिंगन हुआ था, जिसमें कोई शब्द नहीं थे, सिर्फ भावनाएँ थीं।
उस दिन प्रकाश को समझ आया कि पितृ पक्ष का असली अर्थ सिर्फ कर्मकांड करना नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों के अधूरे सपनों को पूरा करना है, उनके दिए हुए अच्छे संस्कारों को आगे बढ़ाना है। सच्चा तर्पण कौओं को खिलाई गई खीर में नहीं, बल्कि उन अच्छे कामों में है जो हम उनकी याद में करते हैं।
अब हर साल प्रकाश पितृ पक्ष में गाँव आता है, पर अब वह सिर्फ़ एक दर्शक नहीं होता। वह अपने पिता के साथ बैठकर पूजा करता है और फिर दोनों बाप-बेटे गाँव के उस स्कूल में जाते हैं, जिसका नाम अब 'स्वर्गीय रामनाथ शास्त्री विद्यालय' है। वहाँ वे बच्चों के साथ समय बिताते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं, और अपने पितरों को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि देते हैं।
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