कृष्ण जन्माष्टमी: मन के आँगन में एक जन्म
वृंदावन की गलियों जैसा न सही, पर कानपुर के उस पुराने मोहल्ले में भी जन्माष्टमी की अपनी एक अलग ही रौनक थी। हर घर के बाहर छोटी-छोटी रंगोलियाँ और आम के पत्तों के तोरण, हवा में घुलती अगरबत्ती की महक और दूर किसी मंदिर से आती भजनों की धीमी गूँज... माहौल में एक पवित्रता थी।
इसी मोहल्ले के एक घर में अपर्णा अपने नन्हे से लड्डू गोपाल को सजा रही थी। शादी के पाँच साल हो गए थे, और यह छोटा सा पीतल का विग्रह ही उसकी दुनिया था। वह उन्हें अपने बेटे की तरह प्यार करती थी, उन्हें नहलाती, नए वस्त्र पहनाती, और उनसे अपने मन की सारी बातें कहती। उसकी आँखों में एक गहरी, अनकही आस थी, जो हर जन्माष्टमी पर और भी घनी हो जाती थी।
यह कहानी है अपर्णा की, उसके पति रजत की, और उसकी सास, सावित्री देवी की - तीन किरदारों के बीच उलझे रिश्तों, मौन संघर्ष और आस्था की शक्ति की।
"बहू, पंजीरी बन गई क्या? रात को बारह बजे भोग भी तो लगाना है," रसोई के दरवाज़े से सावित्री देवी की आवाज़ आई। उनकी आवाज़ में पूजा की तैयारी की चिंता से ज़्यादा एक अनकही उलाहना थी, जो अपर्णा के दिल में तीर की तरह चुभती थी।
"जी माँजी, बस बन ही गई," अपर्णा ने बिना मुड़े जवाब दिया।
अपर्णा जानती थी कि उसकी सास की हर बात का इशारा कहाँ होता है। 'गोद सूनी है', 'घर में एक असली कान्हा होता तो बात ही कुछ और होती' - यह बातें कही नहीं जाती थीं, पर घर की दीवारों में हर पल गूँजती थीं।
रजत, जो एक बैंक में काम करता था, इन सब बातों से दूर रहने की कोशिश करता था। वह अपर्णा से प्यार करता था, पर वह अपनी माँ और पत्नी के बीच के इस ठंडे युद्ध में अक्सर चुप रह जाता था। वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में हमेशा से कच्चा था।
"अपर्णा, तुम फिर इन्हीं सब में लग गईं," रजत ने कमरे में आते हुए कहा। "यह बस एक त्योहार है, इसे इतना दिल से मत लगाओ। ज़्यादा उम्मीदें लगाओगी तो बाद में दुख होगा।"
रजत के लिए यह एक व्यावहारिक सलाह थी, पर अपर्णा के लिए यह शब्द किसी नमक की तरह थे जो उसके ज़ख्मों पर छिड़क दिए गए हों। उसकी आँखें भर आईं। क्या उसका पति भी नहीं समझता कि यह सिर्फ़ एक मूर्ति नहीं, बल्कि उसकी उम्मीदों का, उसके अधूरे सपनों का एक सहारा है? उसे लगा जैसे वह इस घर में बिल्कुल अकेली है।
रात गहरा रही थी। घर के सभी लोग सो चुके थे। अपर्णा ने अपने कान्हा के लिए एक छोटा सा पालना सजाया था। उसने दीये जलाए, फूल चढ़ाए और ठीक बारह बजे, जब शंख और घंटियों की ध्वनि से मोहल्ला गूँज उठा, उसने अपने लड्डू गोपाल को पालने में झुलाना शुरू किया।
वह धीरे-धीरे आरती गा रही थी, और उसकी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे। वह आज भगवान से कुछ माँग नहीं रही थी, वह बस अपना सारा दर्द, अपना सारा अकेलापन, अपनी सारी पीड़ा अपने कान्हा को सौंप रही थी। उसकी आवाज़ में इतनी करुणा और इतना प्रेम था कि पत्थर भी पिघल जाए।
"प्रभु," वह फुसफुसाई, "मुझे कोई शिकायत नहीं... बस इतनी शक्ति देना कि मेरी आस्था कभी कम न हो। मेरा आँगन भले सूना हो, पर मेरा मन हमेशा तुम्हारे प्रेम से भरा रहे।"
रजत, जिसे नींद नहीं आ रही थी, दरवाज़े के पीछे से यह सब देख रहा था। आज पहली बार, उसने अपनी पत्नी को सिर्फ़ एक पूजा करते हुए नहीं देखा। उसने एक भक्त को अपने भगवान से बात करते हुए देखा। उसने अपर्णा की आँखों में शिकायत नहीं, बल्कि एक असीम, निःस्वार्थ प्रेम देखा। उसे एहसास हुआ कि वह जिसे अपर्णा का 'पागलपन' समझता था, वह तो उसकी आत्मा की शक्ति है, उसकी हिम्मत है। उसे शर्मिंदगी महसूस हुई कि वह अपनी ही पत्नी के दर्द को समझने में कितना नाकाम रहा है।
आरती खत्म होने के बाद, अपर्णा चुपचाप वहीं बैठी रही। तभी रजत धीरे से अंदर आया और उसके बगल में बैठ गया।
उसने अपर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया। "मुझे माफ कर दो, अपर्णा," उसकी आवाज़ में एक गहरा पश्चाताप था। "मैं तुम्हारा पति होने का फर्ज़ नहीं निभा पाया। मैं तुम्हारे दर्द को कम तो नहीं कर सका, पर उसे समझने की कोशिश भी नहीं की।"
अपर्णा ने हैरानी से अपने पति की ओर देखा।
रजत ने कहा, "आज मैंने जाना कि सच्चा प्रेम क्या होता है। जैसा तुम अपने कान्हा से करती हो... बिना किसी शर्त के, बिना किसी उम्मीद के। क्या तुम मुझे सिखा सकती हो, अपर्णा? क्या हम दोनों मिलकर इस सफर को तय कर सकते हैं, चाहे नतीजा कुछ भी हो?"
अपर्णा की सिसकियाँ अब रुक नहीं पा रही थीं। पर ये दुख के नहीं, बल्कि राहत के आँसू थे। सालों बाद, आज किसी ने उसके दर्द को समझा था।
ठीक उसी समय, सावित्री देवी, जो शायद आहट सुनकर जाग गई थीं, दरवाज़े पर खड़ी थीं। उन्होंने भी सब कुछ सुन लिया था। उनकी कठोर आँखों में भी आज एक नमी थी। वह धीरे से अंदर आईं और अपर्णा के सिर पर हाथ रखा।
"बहू," उनकी आवाज़ में आज कोई उलाहना नहीं, सिर्फ ममता थी। "असली कान्हा तो करुणा और प्रेम के रूप में जन्म लेता है। शायद हमारे घर में वह आज ही जन्मा है।"
उस रात, उस छोटे से पूजा के कमरे में, तीन उलझे हुए रिश्ते सुलझ गए थे। किसी चमत्कार से गोद नहीं भरी थी, पर मन का सूनापन भर गया था। उस जन्माष्टमी, उस घर में एक बच्चे का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि आपसी समझ, प्रेम और एक-दूसरे के दर्द को अपनाने की भावना का जन्म हुआ था।
अपर्णा ने अपने लड्डू गोपाल की ओर देखा, जो दीये की रोशनी में मुस्कुराते हुए प्रतीत हो रहे थे। उसने जान लिया था कि आस्था का मतलब हमेशा मुरादें पूरी होना नहीं होता। कभी-कभी आस्था का मतलब उस शक्ति को पाना होता है, जिससे हम ज़िंदगी की हर मुश्किल को एक साथ मिलकर पार कर सकें। यही उस जन्माष्टमी का सबसे बड़ा आशीर्वाद था।
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