जब रिश्ते उलझते हैं: एक खामोश आँगन की अनकही बातें
इलाहाबाद के पुराने मोहल्ले की एक गली में, जहाँ नीम का एक बूढ़ा पेड़ आज भी हर बदलते मौसम का गवाह बनता था, वहाँ अवस्थी जी का पुश्तैनी घर था। यह घर सिर्फ ईंट-पत्थर का नहीं, बल्कि यादों, रिश्तों और कुछ अनकही भावनाओं का एक जीता-जागता संग्रहालय था। घर के मुखिया, श्रीकांत अवस्थी, एक रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे - शांत, सिद्धांतवादी और थोड़े पुराने ख्यालों के। उनकी पत्नी, शारदा, उस घर की धुरी थीं, जो हर रिश्ते को अपनी ममता के धागे से बाँधे रखती थीं।
उनकी दुनिया में भूचाल तब आया, जब उनका बेटा, समीर, अपनी पसंद की लड़की, माया, से शादी करके घर लाया। समीर, जो मुंबई में एक आईटी कंपनी में काम करता था, अपने पिता के बिल्कुल विपरीत था - आज़ाद ख्यालों वाला, जो दिल की सुनता था। माया भी वैसी ही थी, एक आत्मनिर्भर और मुखर लड़की, जो एक बड़े शहर में पली-बढ़ी थी।
यह कहानी है उलझे हुए रिश्तों की, जहाँ प्यार तो है, पर समझ की कमी है, जहाँ उम्मीदें हैं, पर संवाद का अभाव है।
शुरुआती दिन किसी सपने की तरह थे। शारदा जी अपनी बहू पर जान छिड़कतीं और श्रीकांत जी भी अपनी खामोशी में ही सही, इस नए रिश्ते को स्वीकारते नज़र आते थे। लेकिन धीरे-धीरे, एक ही छत के नीचे दो अलग-अलग पीढ़ियों की दुनियाएँ टकराने लगीं।
माया को देर तक सोना पसंद था, जबकि अवस्थी परिवार में सूरज उगने से पहले जागने का नियम था। माया को जीन्स और टॉप पहनना सहज लगता था, पर शारदा जी की आँखें उसे साड़ी या सूट में ही देखना चाहती थीं। यह छोटी-छोटी बातें थीं, पर वे धीरे-धीरे एक बड़ी खाई बना रही थीं।
एक दिन, खाने की मेज पर, श्रीकांत जी ने कहा, "बहू, कल पड़ोस में पूजा है। सुबह जल्दी उठकर तैयार हो जाना और साड़ी पहन लेना।"
माया ने धीरे से कहा, "पापाजी, मुझे सुबह एक ज़रूरी ऑनलाइन मीटिंग में शामिल होना है। मैं पूजा में थोड़ी देर से आ जाऊँगी, और क्या मैं सूट पहन सकती हूँ? मुझे साड़ी सँभालने में थोड़ी दिक्कत होती है।"
श्रीकांत जी का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस थाली सरकाकर उठ गए। उनका यह मौन, किसी भी डाँट से ज़्यादा चुभने वाला था। शारदा जी ने माया को आँखों से ही शांत रहने का इशारा किया।
उस रात, समीर और माया के कमरे में एक छोटा सा तूफ़ान आया।
"माया, तुम पापा को मना क्यों नहीं कर सकती थी? तुम्हें पता है, उन्हें ये सब पसंद नहीं," समीर ने थोड़ी झुंझलाहट में कहा।
"मना करना मतलब? समीर, मैंने बस अपनी मजबूरी बताई। और क्या अपनी पसंद के कपड़े पहनना भी गलत है? मैं इस घर को अपना बनाने की पूरी कोशिश कर रही हूँ, पर लगता है इस घर को मुझे बदलने की जल्दी है," माया की आवाज़ में दर्द था।
बात बढ़ गई। रिश्ते उलझने लगे थे। समीर अपने माता-पिता के संस्कारों और अपनी पत्नी के सपनों के बीच पिस रहा था। माया को लग रहा था कि उसका अस्तित्व इस घर की परंपराओं के बोझ तले दब रहा है।
अगले कुछ महीने तनाव में बीते। घर में अब हँसी-ठिठोली की जगह एक भारी खामोशी ने ले ली थी। शारदा जी यह सब देख रही थीं, उनका दिल हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा टूटता था। वह जानती थीं कि गलती किसी की नहीं, बस हालात और उम्मीदों की है।
कहानी में निर्णायक मोड़ तब आया, जब शारदा जी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टर ने बताया कि उनके दिल में एक ब्लॉकेज है और तुरंत ऑपरेशन करना पड़ेगा।
यह खबर सुनते ही पूरा परिवार टूट गया। श्रीकांत जी, जो हमेशा पत्थर की तरह मजबूत दिखते थे, एक कोने में बैठकर बच्चों की तरह रो रहे थे। समीर खुद को असहाय महसूस कर रहा था।
उस मुश्किल घड़ी में, माया एक चट्टान की तरह खड़ी हुई।
उसने अपने आँसू पोंछे और सारी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली। उसने अस्पताल के चक्कर काटे, डॉक्टरों से बात की, पैसों का इंतज़ाम किया और घर और अस्पताल के बीच भाग-दौड़ करने लगी। वह रात-रात भर अपनी सास के पास जागती, उनकी सेवा करती। वह श्रीकांत जी के लिए घर से खाना बनाकर लाती और उन्हें अपने हाथों से खिलाती, ठीक वैसे ही जैसे एक बेटी करती है।
जिस साड़ी को पहनने में उसे दिक्कत होती थी, आज वही साड़ी पहनकर वह पूरे आत्मविश्वास के साथ सब कुछ सँभाल रही थी।
ऑपरेशन सफल रहा। कुछ दिनों बाद, शारदा जी घर आ गईं। घर का माहौल अब बदल चुका था।
एक शाम, जब माया अपनी सास के पैर दबा रही थी, तो श्रीकांत जी उसके पास आए। उनकी आँखों में आज गुस्सा नहीं, बल्कि एक गहरा पश्चाताप था।
उन्होंने माया के सिर पर हाथ रखा। उनकी आवाज़ कांप रही थी। "बेटी... मुझे माफ कर दे। हम तुम्हें बदलने की कोशिश करते रहे, और यह भूल ही गए कि तुम इस घर को कितना कुछ दे रही हो। तुम्हारी modernity तुम्हारे कपड़ों में नहीं, तुम्हारी सोच और तुम्हारी हिम्मत में है। आज अगर तुम न होती, तो हम बिखर जाते।"
माया की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने उठकर अपने ससुर के पैर छू लिए।
श्रीकांत जी ने उसे उठाया और कहा, "पैर छूने की जगह अब गले लगने की है, बेटी।"
उस एक आलिंगन ने सारे गिले-शिकवे धो दिए। उलझे हुए रिश्ते अब सुलझने लगे थे।
समीर, जो यह सब दूर से देख रहा था, अपनी पत्नी के पास आया और उसका हाथ पकड़कर बोला, "मुझे माफ कर दो, माया। मैं एक अच्छा बेटा और एक अच्छा पति, दोनों एक साथ बनने की कोशिश में, एक अच्छा इंसान बनना ही भूल गया था। तुमने मुझे रिश्तों का असली मतलब सिखाया है।"
उस दिन, उस घर ने एक महत्वपूर्ण सबक सीखा। जब रिश्ते उलझते हैं, तो उन्हें तोड़ने या उनसे भागने की बजाय, उन्हें प्यार, धैर्य और समझ के साथ सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। कभी-कभी, हमें अपनी सोच के दरवाज़े खोलने पड़ते हैं ताकि ताज़ी हवा अंदर आ सके।
अब भी उस घर में दो अलग-अलग पीढ़ियाँ रहती हैं, पर अब उनके बीच कोई खाई नहीं है। अब वहाँ एक पुल है - प्यार का, सम्मान का और एक-दूसरे को वैसे ही स्वीकार करने का, जैसे वे हैं। माया आज भी जीन्स पहनती है, पर अब वह खास मौकों पर अपनी सास की दी हुई साड़ी भी बड़े चाव से पहनती है। और श्रीकांत जी, अब अपनी बहू से उसकी ऑनलाइन मीटिंग्स और प्रोजेक्ट्स के बारे में बड़े उत्साह से पूछते हैं।
क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि परिवार परंपराओं को ढोने का नाम नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सहारा बनकर साथ चलने का नाम है।
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