पितृ देव: आशीर्वाद की वो अनमोल घड़ी

 

पितृ देव: आशीर्वाद की वो अनमोल घड़ी

मिश्रा परिवार में, घर के सबसे पुराने कमरे में एक दीवार थी, जो सिर्फ़ तस्वीरों के लिए थी। उस दीवार पर दादाजी, परदादाजी और उनके भी पूर्वजों की धूल भरी, काले-सफ़ेद तस्वीरें टँगी थीं। घर की नई पीढ़ी के लिए, वे बस पुरानी तस्वीरें थीं। लेकिन घर के मुखिया, 70 वर्षीय रमेश जी के लिए, वह दीवार उनके पितृ देव का मंदिर थी।

रमेश जी का अपने पिता, स्वर्गीय श्री रामनाथ जी, से एक गहरा और अनकहा रिश्ता था। रामनाथ जी एक सख्त और कम बोलने वाले इंसान थे। उन्होंने कभी रमेश जी को गले नहीं लगाया, न ही कभी खुलकर उनकी तारीफ की। पर रमेश जी जानते थे कि उनके पिता का प्यार उनकी डाँट और उनके अनुशासन में छिपा था।

यह कहानी है पिता-पुत्र के उसी खामोश रिश्ते और पितृ देव के आशीर्वाद की, जो समय और मृत्यु के बंधन से परे था।

रमेश जी का पोता, अंश, इस साल इंजीनियरिंग की फाइनल परीक्षा दे रहा था। अंश बहुत होशियार था, पर परीक्षा के ठीक पहले, वह बहुत ज़्यादा तनाव और घबराहट का शिकार हो गया। उसका आत्मविश्वास इतना डगमगा गया कि उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया और कहने लगा, "मैं यह नहीं कर सकता। मैं फेल हो जाऊँगा।"

पूरा परिवार परेशान था। रमेश जी के बेटे, सुबोध, जो खुद एक इंजीनियर थे, ने अंश को बहुत समझाया, पर कोई फायदा नहीं हुआ।

परीक्षा से एक रात पहले, अंश का तनाव चरम पर था। वह कांप रहा था और उसकी आँखों में हार का डर साफ़ दिख रहा था।

उस रात, रमेश जी चुपचाप अंश के कमरे में गए। उन्होंने उसे डाँटा नहीं, कोई भाषण नहीं दिया। वह बस अपने साथ एक पुराना, लकड़ी का बक्सा लाए थे। उन्होंने बक्सा खोला। उसमें कुछ पुरानी किताबें, एक जंग लगी घड़ी और एक छोटा सा चाँदी का मेडल था।

रमेश जी ने वह मेडल अंश के हाथ में रखा। "यह तुम्हारे दादाजी, यानी मेरे पिता का है। जब वह तुम्हारी उम्र के थे, तो उन्होंने गणित की एक बहुत बड़ी प्रतियोगिता जीती थी। यह वही मेडल है।"

अंश ने हैरानी से मेडल को देखा।

रमेश जी ने आगे कहना शुरू किया। "तुम्हारे दादाजी बहुत सख्त थे। जब मैं तुम्हारी उम्र में था, तो मैं पढ़ाई में बहुत कमजोर था। मुझे लगता था कि मैं ज़िंदगी में कुछ नहीं कर पाऊँगा। एक रात, परीक्षा से पहले, मैं भी तुम्हारी तरह ही डर गया था।"

उनकी आवाज़ में एक नमी थी। "उस रात, पिताजी मेरे कमरे में आए। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस यह मेडल मेरे हाथ में रख दिया और मेरी पीठ पर हाथ फेरकर चले गए। उस एक स्पर्श में, उस एक खामोश पल में, उन्होंने अपना सारा आत्मविश्वास मुझमें भर दिया। मुझे लगा जैसे वह कह रहे हों - 'अगर मैं कर सकता हूँ, तो तू क्यों नहीं कर सकता? तू मेरा बेटा है।'"

रमेश जी ने अंश के कंधे पर हाथ रखा। "बेटा, हमारे पितृ देव कहीं दूर स्वर्ग में नहीं रहते। वे हमारी रगों में, हमारे संस्कारों में और हमारी हिम्मत में ज़िंदा रहते हैं। जब भी तुम डरो, तो याद करना कि तुम्हारे अंदर तुम्हारे दादाजी और परदादाजी का खून है, उनकी हिम्मत है।"

उन्होंने अंश के हाथ में मेडल बंद करते हुए कहा, "यह सिर्फ चाँदी का एक टुकड़ा नहीं है। यह तुम्हारे दादाजी का आशीर्वाद है। इसे अपनी जेब में रखकर परीक्षा देने जाना। तुम अकेले नहीं होगे, तुम्हारे पितृ देव तुम्हारे साथ होंगे।"

अगली सुबह, जब अंश परीक्षा देने के लिए निकला, तो उसके चेहरे पर डर नहीं, बल्कि एक शांत आत्मविश्वास था। उसकी जेब में वह चाँदी का मेडल था, जो उसे अपने दादाजी के स्पर्श की तरह महसूस हो रहा था।

परीक्षा बहुत अच्छी हुई। जब परिणाम आया, तो अंश ने न सिर्फ़ परीक्षा पास की, बल्कि पूरे कॉलेज में टॉप किया।

उस दिन, घर में जश्न का माहौल था। सब अंश की तारीफ कर रहे थे। अंश सीधा अपने दादाजी के कमरे में गया और उनके पैर छुए। फिर वह उस दीवार के सामने गया जहाँ पूर्वजों की तस्वीरें थीं। उसने अपने दादाजी (रमेश जी के पिता) की तस्वीर के सामने वह मेडल रखा और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

उसकी आँखों में आँसू थे, पर ये खुशी और कृतज्ञता के थे।

उस दिन सुबोध और घर की नई पीढ़ी ने समझा कि पितरों का महत्व सिर्फ़ श्राद्ध की पूजा तक सीमित नहीं है। वे हमारी पहचान की नींव हैं, एक अदृश्य शक्ति, जो मुश्किल समय में हमारा हाथ थाम लेती है।

वह पुरानी दीवार अब सिर्फ़ तस्वीरों की दीवार नहीं थी, वह मिश्रा परिवार के लिए उनके पितृ देव का एक जीता-जागता मंदिर बन गई थी, जहाँ से हर पीढ़ी को हिम्मत और आशीर्वाद मिलता था।

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