दादा की गाय: एक बेजुबान का रिश्ता

 

दादा की गाय: एक बेजुबान का रिश्ता

रघुनाथ काका का पूरा गाँव उन्हें 'दादा' कहता था। उनके आँगन में एक गाय बंधी रहती थी, जिसका नाम उन्होंने 'गंगा' रखा था। गंगा सिर्फ एक जानवर नहीं थी, वह दादा के बुढ़ापे की लाठी और उनके अकेलेपन की साथी थी। दादा की पत्नी सालों पहले गुजर चुकी थीं और उनके बच्चे शहर में बस गए थे। अब दादा और गंगा ही एक-दूसरे का परिवार थे।

यह कहानी है दादा और उनकी गाय गंगा के उस अनूठे रिश्ते की, जो खून के रिश्तों से भी गहरा था।

दादा की सुबह गंगा को सहलाने से शुरू होती थी और रात उसके गले में बंधी घंटी की मीठी ध्वनि सुनकर खत्म होती थी। वह उससे बातें करते, अपने सुख-दुख बाँटते, और गंगा भी अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखों से उन्हें ऐसे देखती, मानो वह उनकी हर बात समझ रही हो। गाँव वाले अक्सर कहते, "दादा तो पागल हैं, जानवरों से बातें करते हैं।" पर दादा को किसी की परवाह नहीं थी।

कहानी में मोड़ तब आया, जब गाँव में एक बड़ी डेयरी कंपनी ने अपनी एक कलेक्शन यूनिट खोली। कंपनी ने गाँव वालों को ज़्यादा पैसे और एडवांस का लालच दिया। गाँव के कई लोगों ने अपनी गायें और भैंसें उस कंपनी को बेच दीं।

कंपनी के लोग दादा के पास भी आए। उन्होंने गंगा के लिए एक मोटी रकम की पेशकश की। "काका, यह गाय अब बूढ़ी हो रही है। यह आपको कितना दूध देती होगी? हम आपको इतने पैसे देंगे कि आपकी बाकी की ज़िंदगी आराम से कट जाएगी।"

दादा ने शांत स्वर में जवाब दिया, "यह मेरी बेटी है, सौदा नहीं।"

यह बात गाँव में फैल गई। लोगों ने दादा को समझाना शुरू किया। "दादा, ज़िद छोड़ो। इस गाय का क्या करोगे? यह बोझ बन जाएगी।" कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि दादा सठिया गए हैं।

उसी समय, गाँव में सूखा पड़ गया। तालाब और कुएँ सूखने लगे। चारे की भारी कमी हो गई। लोगों के लिए अपने जानवरों को पालना मुश्किल हो गया। कई लोगों ने भारी मन से अपने बाकी के जानवर भी बेच दिए।

दादा के लिए भी यह एक कठिन परीक्षा थी। गंगा के लिए चारा जुटाना मुश्किल हो रहा था। वह खुद एक वक्त का खाना खाते, पर गंगा के लिए दूर-दूर से चारा ढूँढ़कर लाते। उनकी जमा-पूँजी भी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी।

एक दिन, उनका शहरी बेटा गाँव आया। जब उसने घर की हालत और दादा की ज़िद देखी, तो वह बहुत नाराज़ हुआ।

"पापा, यह क्या पागलपन है? आप इस एक गाय के पीछे अपनी जान दे देंगे? मैं इसे कल ही कंपनी वालों को बेच दूँगा। आपको पैसों की ज़रूरत है, इस जानवर की नहीं।"

उस रात दादा कुछ नहीं बोले। वह चुपचाप उठे और गंगा के पास जाकर बैठ गए। उन्होंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे सहलाते रहे। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। "गंगा," उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा, "शायद अब हमारे बिछड़ने का समय आ गया है।"अगली सुबह, जब बेटा कंपनी वालों को बुलाने के लिए जाने लगा, तो उसने देखा कि आँगन में गाँव के कई लोग इकट्ठा हैं। वे सब अपने हाथों में चारे का एक-एक गट्ठर लिए खड़े थे।

गाँव के सरपंच ने आगे बढ़कर कहा, "बेटा, हम सबने अपने जानवर बेच दिए, क्योंकि हम मजबूर थे। पर हम इतने भी बेगैरत नहीं कि दादा को अकेला छोड़ दें। जब दादा इस बेजुबान के लिए इतना कुछ कर सकते हैं, तो क्या हम अपने दादा के लिए थोड़ा चारा नहीं जुटा सकते?"

यह सुनकर बेटे की आँखें शर्म से झुक गईं। उसे आज समझ आया कि जिस रिश्ते को वह 'पागलपन' समझ रहा था, वह तो इंसानियत की एक मिसाल बन चुका था। एक जानवर और इंसान का यह रिश्ता गाँव वालों के लिए प्रेरणा बन गया था।

उस दिन के बाद, पूरा गाँव दादा की गाय की देखभाल करने लगा। कोई चारा लाता, तो कोई पानी का इंतज़ाम करता। गंगा अब सिर्फ दादा की गाय नहीं रही, वह पूरे गाँव की 'गंगा मैया' बन गई थी।

सूखा खत्म हो गया, गाँव में फिर से हरियाली लौट आई। पर वह कठिन समय गाँव वालों को एक बड़ी सीख दे गया था। उन्होंने सीखा कि समाज सिर्फ़ इंसानों से नहीं बनता, बल्कि उन बेजुबान जानवरों के प्रति हमारी करुणा और जिम्मेदारी से भी बनता है।

दादा आज भी अपने आँगन में गंगा के साथ बैठे बातें करते हैं। पर अब गाँव वाले उन्हें 'पागल' नहीं कहते। वे दूर से ही हाथ जोड़कर कहते हैं, "देखो, दादा अपनी बेटी के साथ बैठे हैं।" यह कहानी हमें सिखाती है कि प्रेम और करुणा का रिश्ता हर बंधन से ऊपर होता है, और कभी-कभी एक बेजुबान जानवर हमें वह इंसानियत सिखा जाता है, जो हम इंसान होकर भी भूल जाते हैं।

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