कुलदेवी की पूजा: परंपरा और परिवर्तन का संगम
माथुर परिवार में कुलदेवी की पूजा का विधान सदियों से चला आ रहा था। यह पूजा साल में एक बार, नवरात्रि के आठवें दिन होती थी और इसे घर का सबसे बड़ा पुरुष सदस्य ही संपन्न करता था। यह एक ऐसी परंपरा थी, जिस पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया था। घर के मुखिया, श्री हरिनारायण माथुर, अपने पिता और दादा की ही तरह इस परंपरा को पूरी निष्ठा से निभाते थे।
इस कहानी की नायिका है, इसी परिवार की बहू, सुनयना। सुनयना एक पढ़ी-लिखी और आधुनिक विचारों वाली महिला थी। वह परंपराओं का सम्मान करती थी, पर उसे खोखले रीति-रिवाजों से ऐतराज था। उसे हमेशा यह बात खटकती थी कि कुलदेवी की पूजा में घर की महिलाओं की भूमिका सिर्फ़ प्रसाद बनाने और तैयारी करने तक ही क्यों सीमित है? देवी तो खुद एक स्त्री है, फिर उसकी पूजा का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही क्यों?
इस साल, पूजा से कुछ दिन पहले, एक अनहोनी हो गई। हरिनारायण जी सीढ़ियों से गिर गए और उनके पैर में प्लास्टर चढ़ गया। डॉक्टर ने उन्हें पूरी तरह से आराम करने की सलाह दी।
घर में चिंता का माहौल बन गया। अब कुलदेवी की पूजा कैसे होगी? यह सवाल सबके मन में था। हरिनारायण जी के दोनों बेटे, राकेश और सुमित, पूजा की विधि ठीक से नहीं जानते थे। उन्होंने हमेशा बस अपने पिता की मदद की थी।
एक शाम, जब सब इसी चिंता में डूबे थे, तो सुनयना ने हिम्मत करके कहा, "बाबूजी, अगर आप इजाज़त दें, तो क्या मैं इस साल पूजा कर सकती हूँ? मैंने बचपन से आपको और दादाजी को यह पूजा करते देखा है। मुझे सारे मंत्र और विधि याद हैं।"
कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। एक बहू का पूजा करने का प्रस्ताव उस घर के लिए एक अकल्पनीय बात थी।
हरिनारायण जी के छोटे बेटे सुमित ने तुरंत विरोध किया, "यह कैसे हो सकता है, भाभी? आज तक हमारे खानदान में किसी औरत ने कुलदेवी की पूजा नहीं की है। यह अपशकुन होगा।"
लेकिन बड़े बेटे राकेश, जो अपनी पत्नी सुनयना के विचारों का सम्मान करते थे, ने कहा, "पर इसमें गलत क्या है, सुमित? भाभी भी तो इसी परिवार का हिस्सा हैं। और पूजा तो मन की श्रद्धा से होती है, इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि उसे कोई पुरुष करे या स्त्री?"
घर में बहस छिड़ गई। यह बहस सिर्फ पूजा को लेकर नहीं थी, यह परंपरा और परिवर्तन के बीच की लड़ाई थी। यह पुरानी सोच और नई पीढ़ी के विचारों का टकराव था।
अंत में, हरिनारा-यण जी, जो अब तक चुप थे, ने अपना फैसला सुनाया। उनकी आवाज़ में दर्द था, पर एक समझ भी थी।
उन्होंने कहा, "जब हमारी कुलदेवी खुद एक स्त्री है, एक माँ है, तो उसे अपनी बेटी के हाथ से पूजा करवाने में भला क्या आपत्ति हो सकती है? हम सालों से देवी की पूजा तो कर रहे हैं, पर शायद उनके स्त्री रूप का सम्मान करना ही भूल गए। इस साल पूजा सुनयना ही करेगी।"
यह फैसला किसी क्रांति से कम नहीं था।
पूजा के दिन, सुनयना ने पूरी श्रद्धा और विधि-विधान से कुलदेवी की पूजा की। उसने वही मंत्र पढ़े, वही आरतियाँ गाईं जो उसने अपने ससुर को गाते सुना था। जब वह आरती की थाली लेकर अपने ससुर के पास आशीर्वाद लेने पहुँची, तो हरिनारायण जी की आँखों में आँसू थे।
उन्होंने सुनयना के सिर पर हाथ रखकर कहा, "बेटी, आज तूने सिर्फ देवी की पूजा नहीं की है, तूने मेरे मन में सदियों से जमे हुए अंधविश्वास के जाले भी साफ कर दिए हैं। आज हमारी कुलदेवी सच में प्रसन्न हुई होंगी।"
उस दिन माथुर परिवार में एक नई परंपरा की नींव रखी गई। अब उनके घर में कुलदेवी की पूजा कोई पुरुष या स्त्री नहीं, बल्कि वह सदस्य करता था जिसके मन में सबसे ज़्यादा श्रद्धा और भक्ति होती थी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि कुलदेवी की पूजा का असली महत्व महंगे चढ़ावे या जटिल कर्मकांडों में नहीं, बल्कि मन की पवित्रता और सच्ची श्रद्धा में है। परंपराएँ हमें हमारी जड़ों से जोड़ती हैं, लेकिन जब वे समय के साथ बदलती नहीं, तो वे बेड़ियाँ बन जाती हैं। असली सम्मान पुरानी लकीर को पीटने में नहीं, बल्कि समय के साथ उन परंपराओं को और भी सुंदर और समावेशी बनाने में है। सुनयना ने यही किया, और उस घर की कुलदेवी को एक बेटी के रूप में एक नई पुजारिन मिल गई।
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