एक माँ की चुप्पी: भावनात्मक कहानी

 

एक माँ की चुप्पी: भावनात्मक कहानी

श्रीमती सरोज वर्मा, एक रिटायर्ड स्कूल प्रिंसिपल, अपने सख्त अनुशासन और सधे हुए व्यवहार के लिए जानी जाती थीं। उनके दो बेटे थे, अमन और समीर, दोनों विदेश में बसे हुए थे। घर में सरोज जी और उनके पति, श्री वर्मा, अकेले रहते थे। सरोज जी की एक आदत थी जो सबको खटकती थी - वह कभी अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं करती थीं। न खुशी, न दुख। उनका चेहरा हमेशा एक शांत, भावहीन झील की तरह रहता था।

यह एक माँ की चुप्पी थी, जिसे उनके बेटे भी कभी समझ नहीं पाए। जब वे फोन पर कोई अच्छी खबर सुनाते, जैसे प्रमोशन या नया घर, तो सरोज जी बस कहतीं, "अच्छा है। ध्यान रखना।" जब वे कोई परेशानी बताते, तब भी उनका जवाब होता, "सब ठीक हो जाएगा। हिम्मत रखो।"

उनके पति भी अक्सर कहते, "सरोज, तुम पत्थर की हो क्या? कभी तो हँस लिया करो, कभी रो लिया करो।" पर सरोज जी बस मुस्कुरा देतीं।

यह भावनात्मक कहानी तब एक नया मोड़ लेती है, जब एक दिन अचानक श्री वर्मा का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो जाता है। घर में रिश्तेदारों और पड़ोसियों का ताँता लग जाता है। सब रो रहे थे, एक-दूसरे को सांत्वना दे रहे थे। लेकिन सरोज जी चुपचाप एक कोने में बैठी थीं, उनकी आँखों में एक भी आँसू नहीं था।

सब कानाफूसी करने लगे, "देखो, कैसी औरत है! पति चला गया और इसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा।" "शुरू से ही ऐसी थीं, कठोर और भावहीन।"

उनके बेटे, अमन और समीर, भी अपनी माँ के इस व्यवहार से हैरान और थोड़े नाराज़ थे। उन्हें लगा कि शायद माँ को पिताजी से कभी प्यार था ही नहीं।

अंतिम संस्कार के तेरह दिन बाद, जब सब मेहमान चले गए और घर में बस माँ और दोनों बेटे रह गए, तो बड़े बेटे अमन ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, "माँ, क्या आपको पिताजी के जाने का सच में कोई दुख नहीं है? आप एक बार भी नहीं रोईं।"

उस रात, सालों बाद, एक माँ की चुप्पी टूटी।

सरोज जी ने अपने बेटों को अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने अपनी पुरानी, लोहे की अलमारी खोली और उसमें से एक छोटा सा, धूल भरा बॉक्स निकाला। उस बॉक्स में कुछ पुरानी चिट्ठियाँ, एक सूखा हुआ गुलाब का फूल और कुछ काले-सफ़ेद तस्वीरें थीं।

उन्होंने एक तस्वीर उठाई। यह उनके और श्री वर्मा के जवानी के दिनों की थी।

"तुम्हारे पिताजी जब मुझसे पहली बार मिले थे, तो यही गुलाब का फूल लाए थे," उन्होंने एक कांपती हुई, भीगी आवाज़ में कहा। यह पहली बार था जब उनके बेटों ने अपनी माँ की आवाज़ में इतनी नमी महसूस की थी।

"जब तुम दोनों पैदा हुए," उन्होंने एक और तस्वीर उठाते हुए कहा, "तो तुम्हारे पिताजी ने पूरी रात अस्पताल के बाहर जागकर बिताई थी। जब नर्स ने उन्हें बताया कि बेटे हुए हैं, तो वह बच्चों की तरह नाचने लगे थे।"

एक-एक करके, वह उस बॉक्स से यादें निकालती रहीं और उनके पीछे की कहानियाँ सुनाती रहीं। हर कहानी के साथ उनकी आवाज़ और भी भारी होती जा रही थी।

अंत में, उन्होंने एक चिट्ठी उठाई। "यह तुम्हारे पिताजी का आखिरी खत है, जो उन्होंने मुझे तब लिखा था जब मैं प्रिंसिपल बनी थी। इसमें लिखा है - 'सरोज, मुझे तुम पर गर्व है। तुम बहुत मजबूत हो। तुम मेरे बिना भी सब कुछ सँभाल लोगी। बस एक वादा करो, तुम कभी कमजोर नहीं पड़ोगी।'"

यह पढ़ते-पढ़ते उनके सब्र का बाँध टूट गया। वह अपने दोनों बेटों के सामने बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो पड़ीं। उनके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। सालों का दबा हुआ दर्द, अकेलापन और हर भावना जो उन्होंने अपने अंदर कैद कर रखी थी, वह सब बाहर आ रही थी।

अमन और समीर स्तब्ध थे। उन्होंने अपनी माँ का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था।

रोते-रोते सरोज जी ने कहा, "मैं इसलिए चुप नहीं थी कि मुझे दुख नहीं था। मैं इसलिए चुप थी क्योंकि तुम्हारे पिताजी ने मुझे हमेशा मजबूत बने रहने को कहा था। मैं अगर टूट जाती, तो तुम दोनों को कौन सँभालता? तुम दोनों इतनी दूर रहते हो, अगर मैं रोती तो तुम लोग परेशान हो जाते। एक माँ की चुप्पी अक्सर उसकी मजबूती का कवच होती है, बेटा, उसकी कमजोरी का सबूत नहीं।"

उस रात, दोनों बेटों ने अपनी माँ को कसकर गले लगा लिया। उन्हें आज समझ आया कि उनकी माँ पत्थर की नहीं, बल्कि एक ऐसा समंदर थीं, जिसने सारे तूफ़ान अपने अंदर ही समेट रखे थे, ताकि उसकी लहरें उनके बच्चों तक न पहुँच सकें।

यह भावनात्मक कहानी सिर्फ़ एक माँ की नहीं, बल्कि उन लाखों माँओं की है जो अपनी भावनाओं को अपने बच्चों की खुशियों और सलामती के लिए कुर्बान कर देती हैं। उनकी चुप्पी उनकी बेपरवाही नहीं, बल्कि उनका सबसे गहरा और अनकहा प्यार होती है।

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