संगवारी


 

संगवारी

(अर्थ: सखी, मित्र, जीवन संगिनी)

 

गांव की पगडंडियों पर दो लड़कियां रोज़ एक साथ चलती थीं — एक मुनिया, दूसरी जुगनी। दोनों ने बचपन से खेतों में साथ काम किया, त्यौहार साथ मनाए और एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटा।

मुनिया की शादी जल्दी हो गई, और वो रघु के साथ ससुराल चली गई। जुगनी गाँव में रह गई, अपने माता-पिता की सेवा में।

कुछ सालों तक सब ठीक चला। फिर एक दिन जुगनी के पिता की मृत्यु हो गई। रिश्तेदारों ने घर-बाहर सब हड़प लिया और जुगनी को अकेला छोड़ दिया। वह खेत में काम करके गुज़ारा करती, मगर हर त्यौहार की रौनक अब फीकी लगती।

मुनिया जब उसे मिलने आई, तो देखा उसकी हँसी गायब थी। उसने रघु से बात की और कहा,
"जुगनी मेरी संगवारी है, उसका दुख मेरा है। मैं चाहती हूँ कि वो हमारे घर में रहे, हमारे साथ।"

रघु पहले हिचका, लेकिन फिर बोला,
"जो तुझसे इतना जुड़ी है, वो मेरे लिए भी सम्मान की पात्र है।"

जुगनी को उनके घर लाया गया, और उसने मुनिया के बच्चों को माँ जैसा स्नेह दिया। गांव में कई लोगों ने ताना मारा,
"बिना ब्याह की औरत घर में रखी है?"

मगर मुनिया ने सिर ऊँचा कर कहा,
"जिसने मेरी माँ की तरह सेवा की, उसके लिए समाज क्या कहेगा, मुझे परवाह नहीं।"

समय बीता। गांव की पंचायत में महिलाओं के अधिकारों की बात होने लगी। मुनिया और जुगनी ने मिलकर गाँव की पहली महिला समूह समिति बनाई, जहाँ विधवा, अकेली और ज़रूरतमंद महिलाएँ स्वरोजगार सीखने लगीं।

अब जुगनी अकेली नहीं थी — वह सबकी संगवारी बन गई थी।

 

"सच्ची दोस्ती खून के रिश्तों से भी गहरी होती है। जब समाज रूढ़ियों से बंधा हो, तो संगवारी जैसे रिश्ते उम्मीद और बदलाव की मिसाल बनते हैं।"

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