मेरी माँ
(सामाजिक, भावनात्मक, पारिवारिक)
"माँ" – एक ऐसा शब्द, जिसमें पूरी दुनिया की ममता, त्याग, धैर्य और निःस्वार्थ प्रेम समाया हुआ है। इस कहानी में हम देखेंगे कि एक बेटी जब माँ बनती है, तब उसे अपनी माँ के संघर्ष, प्रेम और कुर्बानियों का असली मोल समझ आता है।
शिवानी का बचपन बहुत सादा था। उसके पापा अवधेश जी एक प्राथमिक विद्यालय में मास्टर थे और माँ सरोज देवी गृहिणी। माँ सुबह 5 बजे उठ जातीं—गाय को चारा डालना, ट्यूशन पढ़ने जाती शिवानी के लिए टिफिन बनाना, और पापा के लिए कपड़े प्रेस करना।
शिवानी जब छोटी थी, तब उसे लगता, "माँ कितना डांटती हैं! हर बात पर टोका-टोकी!"
एक बार वह गुस्से में बोली थी,
"माँ, आप हमेशा पुराने जमाने की बातें करती हैं। मुझे अपनी मर्जी से जीना है!"
माँ बस मुस्कुराईं और बोलीं,
"बिटिया, जब तू माँ बनेगी, तब मेरी बातें याद आएंगी।"
वक़्त बीता।
शिवानी की शादी हो गई और वह एक शहर में बस गई। कुछ सालों में वह खुद माँ बन गई। उसका बेटा परीक्षित जब छोटा था, वह रात-रात भर जागकर रोता। शिवानी थककर चिड़चिड़ा हो जाती।
एक दिन वह थक हारकर बिस्तर पर बैठी थी और अचानक माँ की कही बात याद आई—
"जब तू माँ बनेगी, तब मेरी बातें याद आएंगी।"
वह फूट-फूटकर रोने लगी।
तुरंत फोन उठाया, और माँ को कॉल किया:
"माँ...सॉरी...मुझे नहीं पता था कि तुमने कितना सहा होगा।"
माँ ने बस इतना कहा,
"बिटिया, तू मुस्कुराती है, तो मेरा आशीर्वाद सफल हो जाता है।"
उस दिन शिवानी ने एक निर्णय लिया—वह साल में एक बार माँ को अपने साथ शहर जरूर लाएगी और उन्हें वही आराम देगी जो उन्होंने कभी खुद नहीं माँगा।
आज शिवानी का बेटा बड़ा हो गया है, इंजीनियरिंग कर रहा है। माँ अब बूढ़ी हो चुकी हैं, लेकिन जब वह आँगन में बैठकर माला फेरती हैं, तो शिवानी उनके पाँव दबाते हुए बस एक ही बात कहती है:
"माँ, तुमने सबकुछ दिया, अब मेरी बारी है..."
"माँ की ममता को कोई तौल नहीं सकता। जब हम खुद माता-पिता बनते हैं, तभी माँ के आँचल की गहराई समझ में आती है।"

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