नवरात्रि में माता रानी का चमत्कार: एक टूटे हुए विश्वास की कहानी

 

नवरात्रि में माता रानी का चमत्कार: एक टूटे हुए विश्वास की कहानी
Navratri

आस्था और तर्क के बीच की लड़ाई शायद उतनी ही पुरानी है, जितनी खुद इंसानियत। पर कभी-कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जो हर तर्क को झुठला देती हैं और हमें उस अनदेखी शक्ति पर विश्वास करने को मजबूर कर देती हैं। यह कहानी है ऐसी ही एक घटना की, एक ऐसे चमत्कार की, जो इस नवरात्रि में घटा और जिसने एक परिवार के टूटे हुए विश्वास को फिर से जोड़ दिया।

यह कहानी है पंडित दीनानाथ के परिवार की।

पंडित दीनानाथ, अपने छोटे से कस्बे के एक सम्मानित पुजारी थे। उनके लिए नवरात्रि साल का सबसे बड़ा पर्व था। वह नौ दिनों तक पूरी श्रद्धा से माता रानी की उपासना करते। उनका घर दीयों की रोशनी और मंत्रों की ध्वनि से गूँजता रहता।

पर उनके अपने ही घर में, आस्था का एक दीया बुझ रहा था। उनका बेटा, मोहित, कुछ साल पहले तक बहुत आस्तिक था। पर जब एक बीमारी ने उसकी पत्नी, प्रिया, की आवाज़ छीन ली, तो उसका भगवान पर से विश्वास उठ गया। प्रिया, जो एक गायिका थी और जिसकी आवाज़ की कद्र पूरा कस्बा करता था, अब एक खामोश ज़िंदगी जीने को मजबूर थी।

"कहाँ हैं आपकी माता रानी, पापा?" मोहित अक्सर कड़वाहट से कहता। "जब एक कलाकार से उसकी कला ही छीन ली, तो ऐसी पूजा का क्या फायदा?"

यह एक पिता और पुत्र के बीच की गलतफहमी थी। पंडित जी के लिए, यह भगवान की परीक्षा थी। और मोहित के लिए, यह भगवान का अन्याय।

प्रिया, इस सब के बीच, चुपचाप सब सहती थी। वह बोल नहीं सकती थी, पर उसकी बड़ी-बड़ी, उदास आँखें उसके मन का सारा दर्द बयान कर देती थीं।

इस साल नवरात्रि आई, पर घर में वह पहले जैसा उत्साह नहीं था। पंडित जी पूजा करते, पर उनका मन भारी रहता। मोहित अपने कमरे में बंद रहता, और प्रिया खामोशी से घर के कामों में लगी रहती।

अष्टमी की रात थी। पंडित जी ने घर में एक छोटा सा जागरण रखा था। मोहल्ले के लोग आए थे, भजन गा रहे थे, और पूरा माहौल भक्तिमय था।

"चलो, प्रिया बेटी," पंडित जी ने अपनी बहू से इशारे में कहा, "तुम भी आकर बैठो।"

प्रिया धीरे से आकर एक कोने में बैठ गई। उसकी आँखें चौकी पर सजी माता रानी की सुंदर मूर्ति पर टिकी थीं। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे, पर वे शिकायत के नहीं, बल्कि एक गहरी, अनकही प्रार्थना के थे। वह अपनी आवाज़ वापस नहीं माँग रही थी, वह बस अपने पति के टूटे हुए विश्वास को फिर से जुड़ते हुए देखना चाहती थी।

तभी, जागरण में एक छोटी सी, आठ साल की बच्ची, जिसे सब 'छोटी' कहते थे, ने गाना शुरू किया। वह एक बहुत ही प्यारा भजन गा रही थी। पर गाते-गाते, अचानक वह एक ऊँचा सुर नहीं लगा पाई और उसका गला रुंध गया।

माहौल में एक अजीब सी खामोकी छा गई।

छोटी उदास हो गई। तभी, प्रिया, जो अब तक चुप बैठी थी, अपनी जगह से उठी। वह धीरे-धीरे चलकर उस बच्ची के पास गई। उसने बच्ची के सिर पर हाथ फेरा और उसे प्यार से गले से लगा लिया।

फिर, प्रिया ने कुछ ऐसा किया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

उसने अपनी आँखें बंद कीं, और अपने हाथों से इशारे करते हुए, बिना आवाज़ के, उस भजन के भावों को नृत्य के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। उसके हर इशारे में, हर मुद्रा में, इतनी गहराई और इतनी भावना थी कि वहाँ मौजूद हर व्यक्ति मंत्रमुग्ध हो गया।

उसकी खामोशी में जैसे हज़ारों शब्द थे। वह अपनी आँखों से गा रही थी, अपने हाथों से गा रही थी। उसने उस बच्ची को इशारों में समझाया कि सुर गले से नहीं, दिल से निकलता है।

यह देखकर, वह छोटी सी बच्ची फिर से हिम्मत जुटाकर गाने लगी। और इस बार, उसके साथ प्रिया का मूक अभिनय भी जुड़ गया। यह एक अद्भुत जुगलबंदी थी - एक बच्ची की मासूम आवाज़ और एक खामोश औरत की आत्मा की अभिव्यक्ति।

मोहित, जो अपने कमरे से यह सब देख रहा था, स्तब्ध था। उसने सालों बाद अपनी पत्नी को इतना खुश और इतना जीवंत देखा था। उसे एहसास हुआ कि उसने तो प्रिया की आवाज़ खोने का मातम मनाया, पर उसने यह देखा ही नहीं कि प्रिया ने अपनी कला को एक नया रूप दे दिया है। उसने अपनी कमजोरी को ही अपनी सबसे बड़ी ताकत बना लिया है।

जब वह भजन खत्म हुआ, तो पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

तभी, एक चमत्कार हुआ।

वह छोटी सी बच्ची, 'छोटी', दौड़कर प्रिया के पास आई और उसे कसकर गले से लगा लिया। "आपकी आँखें कितना सुंदर गाती हैं, दीदी!"

और फिर, उसने प्रिया के कान में कुछ फुसफुसाया।

अचानक, प्रिया के चेहरे का रंग बदल गया। उसकी आँखें फैल गईं। उसने धीरे से अपने गले पर हाथ रखा, और उसके होठों से एक कांपता हुआ, टूटा हुआ शब्द निकला... "माँ..."

यह आवाज़ बहुत धीमी थी, एक सरगोशी की तरह। पर उस शांत हॉल में, वह आवाज़ हर किसी ने सुनी।

मोहित दौड़कर अपनी पत्नी के पास आया। "प्रिया! तुमने... तुमने कुछ कहा?"

प्रिया की आँखों से आँसू बह रहे थे, पर इस बार उसके चेहरे पर एक अद्भुत मुस्कान थी। उसने फिर से कोशिश की, और इस बार थोड़ी और साफ आवाज़ निकली, "माता रानी..."

डॉक्टर भी हैरान थे। उन्होंने कहा कि यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। शायद उस बच्ची के निश्छल प्रेम और उस भक्तिमय माहौल ने प्रिया के मन के किसी ऐसे तार को छेड़ दिया था, जो उसकी आवाज़ को वापस ले आया।

पर मोहित जानता था कि असली चमत्कार क्या है।

उस रात, वह अपने पिता के पास गया और उनके पैर छू लिए। "मुझे माफ कर दीजिए, पापा। मैं गलत था। माता रानी का चमत्कार तो उसी दिन हो गया था, जब उन्होंने मुझे प्रिया जैसी पत्नी दी। मैं ही अपनी आँखों पर अविश्वास का पर्दा डाले बैठा था।"

यह कहानी हमें सिखाती है कि चमत्कार हमेशा कोई अलौकिक घटना नहीं होती। कभी-कभी, किसी का निःस्वार्थ प्रेम, किसी की अटूट आस्था, और मुश्किलों में भी हार न मानने का जज्बा ही सबसे बड़ा चमत्कार होता है। उस नवरात्रि, उस घर में सिर्फ एक आवाज़ नहीं लौटी थी, बल्कि एक बेटे का विश्वास, एक पति का प्यार और एक परिवार की खोई हुई खुशी भी लौट आई थी।

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