द्वारपालों का मौन संवाद: नाग और सिंह
राजस्थान की सूखी धरती पर खड़ी, राठौड़ परिवार की पुश्तैनी हवेली सिर्फ़ एक इमारत नहीं, बल्कि सदियों की विरासत का एक खामोश गवाह थी। इसके विशाल दरवाज़े के दोनों ओर पत्थर के दो द्वारपाल थे, जो अब समय के थपेड़ों से काले पड़ चुके थे। बाईं ओर सात फनों वाला एक भव्य नाग था, जिसकी हर नक्काशी में एक अद्भुत जीवंतता थी। दाईं ओर एक विशाल सिंह था, जिसकी देह में आज भी शाही ताकत झलकती थी, पर उसका सिर खंडित था, मानो किसी ने उसकी आत्मा ही निकाल ली हो।
यह कहानी है उस हवेली के संरक्षक, 80 वर्षीय विक्रम सिंह राठौड़ की, और उनके पोते, आरव की।
विक्रम सिंह जी एक माने हुए इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता थे। उनकी ज़िंदगी इन्हीं पत्थरों, पांडुलिपियों और पुरखों की कहानियों में बसती थी। वह खुद उस सात फनों वाले नाग की तरह थे - ज्ञान, परंपरा और परिवार की जड़ों के प्रहरी। उनके लिए हवेली का हर पत्थर उनके पूर्वजों का एक आशीर्वाद था।
आरव, जो बैंगलोर में एक सफल टेक स्टार्टअप चलाता था, इन सबसे बहुत दूर था। वह आधुनिक, व्यावहारिक और भविष्य की सोचने वाला नौजवान था। उसके लिए यह हवेली बस एक पुरानी, रख-रखाव में महंगी पड़ने वाली संपत्ति थी। वह उस बिना सिर के सिंह की तरह था - शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी, पर अपनी जड़ों की दिशा से अनभिज्ञ।
कहानी में भूचाल तब आया, जब आरव छुट्टियों में घर आया और उसने अपने दादाजी के सामने एक प्रस्ताव रखा।
"दादाजी," उसने बड़ी व्यावसायिक सहजता से कहा, "मैंने एक बड़े डेवलपर से बात की है। वे इस हवेली की जगह एक हेरिटेज होटल बनाना चाहते हैं। हमें बहुत अच्छी कीमत मिल रही है। हम सब शहर में एक आरामदायक ज़िंदगी जी सकते हैं।"
विक्रम सिंह जी ने अपनी किताबों से नज़रें उठाईं और आरव को ऐसे देखा, मानो उसने कोई अक्षम्य अपराध कर दिया हो। उनकी शांत आँखों में एक गहरा दर्द तैर गया।
"कीमत?" उन्होंने धीमी पर भारी आवाज़ में कहा। "तुम विरासत की कीमत लगा रहे हो, आरव? यह पत्थर नहीं, हमारी पहचान हैं। तुम्हारे परदादा ने इसी आँगन में अपनी आखिरी साँसें ली थीं।"
"पर दादाजी, प्रैक्टिकल बनिए!" आरव ने समझाने की कोशिश की। "इन दीवारों की देखभाल में हमारी आधी कमाई चली जाती है। हम कब तक अतीत का बोझ ढोते रहेंगे?"
"यह बोझ नहीं, छाँव है, बेटा," विक्रम सिंह जी ने कहा। "जिस दिन तुम अपनी जड़ों की छाँव खो दोगे, उस दिन तुम्हारी सफलता की धूप तुम्हें ही जला देगी।"
दोनों के बीच एक गहरी खाई बन गई। आरव को अपने दादाजी की बातें भावुकतापूर्ण और अव्यावहारिक लगीं। विक्रम सिंह जी को अपने पोते में अपनी विरासत का अंत दिखाई देने लगा। इस मौन संघर्ष की साक्षी थी आरव की माँ, अंजलि, जो अपने ससुर के सम्मान और बेटे के भविष्य के बीच पिस रही थी।
एक रात, बहस बढ़ गई। आरव ने कह दिया, "आप इन बेजान पत्थरों के लिए हम सबकी खुशियों को दाँव पर लगा रहे हैं!"
यह सुनकर विक्रम सिंह जी टूट गए। वह चुपचाप उठे और खुद को अपने विशाल पुस्तकालय में बंद कर लिया।
कई घंटे बीत गए। जब उन्होंने दरवाज़ा नहीं खोला, तो चिंतित अंजलि ने आरव से कहा, "बेटा, जा देख। तेरे दादाजी ठीक तो हैं? और हाँ, उनकी मेज पर कंबोडिया के मंदिरों पर लिखी एक पुरानी किताब होगी, वह लेते आना, उन्हें उसकी ज़रूरत पड़ती है।"
आरव भारी मन से पुस्तकालय में गया। दादाजी अपनी आरामकुर्सी पर आँखें बंद किए बैठे थे, मानो हार गए हों। आरव ने उन्हें परेशान नहीं किया और चुपचाप किताब ढूँढ़ने लगा।
उसे वह किताब तो नहीं मिली, पर उसे एक पुरानी, हाथ से लिखी हुई पांडुलिपि मिली। उसका शीर्षक था - "अंकोर वाट के द्वारपाल: नाग और सिंह का मौन संवाद।" यह उसके दादाजी की अपनी अधूरी किताब थी।
आरव ने अनजाने में ही उसे पढ़ना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे वह पन्ने पलटता गया, उसकी आँखों के सामने से पर्दा हटता गया।
दादाजी ने लिखा था:
"अंकोर वाट के प्रवेश द्वार पर खड़ा सात फनों वाला नाग सिर्फ़ एक सर्प नहीं है। वह सनातन ज्ञान, धर्म और कुल की निरंतरता का प्रतीक है। उसके सात फन परिवार की सात पीढ़ियों की रक्षा करते हैं। वह ज़मीन से जुड़ा है, अपनी जड़ों को जानता है।"
अगले अध्याय में सिंह का वर्णन था:
"नाग के सामने खड़ा है बिना सिर का सिंह। यह शक्ति और साहस का प्रतीक है। पर जब शक्ति के ऊपर विवेक और परंपरा का 'सिर' नहीं होता, तो वह दिशाहीन और विध्वंसक हो जाती है। यह सिंह एक चेतावनी है - अपनी जड़ों से कटा हुआ शौर्य सिर्फ़ खंडहर ही पैदा करता है।"
आखिरी पन्ने पर, दादाजी ने अपने दिल का दर्द उकेरा था:
"आज मैं अपनी ही हवेली के द्वार पर खुद को उस नाग की तरह महसूस करता हूँ, जो अपनी पूरी शक्ति से विरासत को बचाने की कोशिश कर रहा है। पर मुझे डर है कि मेरी आने वाली पीढ़ी उस बिना सिर के सिंह की तरह न बन जाए - शक्तिशाली, सफल, पर अपनी पहचान से अनभिज्ञ।"
यह पढ़ते-पढ़ते आरव के हाथ कांपने लगे। उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। उसे आज समझ आया कि यह लड़ाई ज़मीन के एक टुकड़े की नहीं, बल्कि एक पहचान को बचाने की थी। उसके दादाजी उसे बोझ नहीं, बल्कि दिशा देना चाहते थे। वह जिस 'प्रैक्टिकल' दुनिया की बात कर रहा था, उसकी नींव इन्हीं 'भावुक' परंपराओं पर रखी थी।
वह पांडुलिपि लेकर अपने दादाजी के पास गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। "मुझे माफ कर दीजिए, दादाजी। मैं समझ ही नहीं पाया कि आप क्या बचाने की कोशिश कर रहे थे।"
विक्रम सिंह जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया। दादा और पोते के आँसुओं ने सालों की गलतफहमियों को धो दिया।
"मैं यह हवेली नहीं बेचूँगा, दादाजी," आरव ने दृढ़ता से कहा। "बल्कि, मैं अपनी सारी टेक्नोलॉजी और मॉडर्न आइडियाज़ लगाकर इसे फिर से जीवंत करूँगा। हम इसे एक कल्चरल सेंटर और डिजिटल म्यूजियम बनाएँगे, ताकि दुनिया हमारी विरासत को देखे और समझे।"
उस दिन, उस हवेली में एक नया अध्याय शुरू हुआ। बिना सिर के सिंह को अपनी जड़ों का ज्ञान और विवेक रूपी 'सिर' मिल गया था। आरव ने सीखा कि प्रगति का मतलब अतीत को मिटाना नहीं, बल्कि उसे सम्मान देकर भविष्य का निर्माण करना है।
और विक्रम सिंह जी ने चैन की साँस ली, क्योंकि उन्हें यकीन हो गया था कि अब उनकी विरासत का द्वारपाल अकेला नहीं था।

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