पारिवारिक परंपरा: विवाह - एक सामाजिक-सांस्कृतिक समारोह
भारत में विवाह सिर्फ़ दो व्यक्तियों का मिलन नहीं है; यह दो परिवारों, दो संस्कृतियों और कई पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं का एक जीवंत संगम है। यह एक ऐसा सामाजिक-सांस्कृतिक समारोह है, जहाँ हर रस्म के पीछे एक गहरा अर्थ छिपा होता है, और हर रिवाज रिश्तों की नाजुक डोर को और भी मजबूती से बाँधने का काम करता है। लेकिन जब आधुनिक विचार और पुरानी मान्यताएँ एक ही मंडप के नीचे टकराती हैं, तो यही खूबसूरत समारोह मानवीय भावनाओं और संघर्षों का एक आईना बन जाता है।
यह कहानी है मिश्रा परिवार की, और उनकी बेटी, ईशा के विवाह की।
मिश्रा निवास, लखनऊ की एक पुरानी कोठी, अपनी पारिवारिक परंपराओं के लिए पूरे मोहल्ले में जानी जाती थी। घर के मुखिया, श्री रमाकांत मिश्रा, सिद्धांतों के पक्के और अपनी विरासत पर गर्व करने वाले इंसान थे। उनकी पत्नी, विमला जी, हर परंपरा की आत्मा को समझती थीं और उसे सहेजकर रखती थीं। उनकी बेटी, ईशा, एक पढ़ी-लिखी और स्वतंत्र विचारों वाली लड़की थी, जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी।
ईशा का विवाह उसके बचपन के दोस्त, आदित्य से तय हुआ था, जो खुद भी एक आधुनिक सोच वाला लड़का था। दोनों परिवारों में खुशी की लहर थी, पर इस खुशी के साथ ही शुरू हुआ परंपरा और प्रगति के बीच का एक मौन द्वंद्व।
विवाह की पहली रस्म - 'पत्रिका मिलान' से ही इसकी शुरुआत हो गई। रमाकांत जी के लिए, छत्तीस के छत्तीस गुणों का मिलना अनिवार्य था। वहीं, ईशा और आदित्य के लिए, आपसी समझ और सम्मान किसी भी कुंडली से ज़्यादा महत्वपूर्ण थे।
"पापा, यह सब सिर्फ़ मान्यताएँ हैं," ईशा ने धीरे से कहने की कोशिश की। "हम एक-दूसरे को दस साल से जानते हैं। क्या हमारा यह रिश्ता ज्योतिष की गणनाओं से ज़्यादा मजबूत नहीं है?"
रमाकांत जी ने गहरी साँस ली। "बेटी, यह सिर्फ़ मान्यता नहीं, हमारी जड़ों का सम्मान है। यह पारिवारिक परंपरा है, जिसने हमारे परिवार को आज तक जोड़े रखा है। तुम बच्चे इसे नहीं समझोगे।"
बात वहीं खत्म हो गई। कुंडली मिली, और शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं।
शादी के समारोहों में यह टकराव और भी गहरा हो गया। हल्दी की रस्म में, विमला जी ने ईशा को अपनी माँ की पुरानी, पीली साड़ी पहनने को दी। वह साड़ी खूबसूरत थी, पर पुरानी और भारी थी।
"माँ, क्या मैं कुछ हल्का पहन सकती हूँ? डिज़ाइनर ने मेरे लिए एक बहुत सुंदर ड्रेस बनाई है," ईशा ने झिझकते हुए कहा।
विमला जी की आँखों में एक पल के लिए उदासी छा गई। "यह साड़ी सिर्फ़ एक कपड़ा नहीं है, बेटा। इसमें तुम्हारी नानी का आशीर्वाद है, मेरी यादें हैं। इसे पहनकर जब तुम बैठोगी, तो लगेगा जैसे हमारी तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठी हैं।"
उस साड़ी के धागों में छिपी भावनाओं को देखकर ईशा चुप हो गई। उसने वह भारी साड़ी पहनी, और जब उसने आईने में खुद को देखा, तो उसे सिर्फ अपना अक्स नहीं, बल्कि अपनी माँ और नानी की एक झलक भी दिखाई दी। उसे एहसास हुआ कि परंपराएँ बोझ नहीं, बल्कि यादों का एक खूबसूरत खजाना होती हैं।
लेकिन सबसे बड़ा संघर्ष 'कन्यादान' की रस्म के समय हुआ।
जब पंडित जी ने रमाकांत जी को 'कन्यादान' के लिए बुलाया, तो ईशा ने अपने पिता का हाथ पकड़ा और धीरे से कहा, "पापा, मैं आपका दान नहीं, आपका आशीर्वाद चाहती हूँ। मैं कोई वस्तु नहीं हूँ जिसे दान किया जा सके। मैं आपकी बेटी हूँ, और हमेशा रहूँगी।"
एक पल के लिए मंडप में सन्नाटा छा गया। रमाकांत जी का चेहरा सख्त हो गया। उन्हें लगा जैसे उनकी बेटी ने भरे समाज में उनका अपमान कर दिया हो।
"यह तुम क्या कह रही हो, ईशा?" उनकी आवाज़ में गुस्सा और दर्द दोनों था। "यह हमारी सबसे पवित्र सामाजिक परंपरा है!"
"पापा, मैं परंपरा का सम्मान करती हूँ," ईशा ने आँखों में आँसू लिए कहा। "पर क्या समय के साथ परंपराओं का अर्थ नहीं बदलना चाहिए? आप मेरा हाथ आदित्य के हाथ में दीजिए, पर 'दान' के रूप में नहीं, बल्कि एक 'सहयोग' के रूप में, एक 'ज़िम्मेदारी के हस्तांतरण' के रूप में। कहिए कि आप अपनी बेटी की खुशी की ज़िम्मेदारी आज से अपने बेटे जैसे दामाद को भी सौंप रहे हैं।"
आदित्य भी तुरंत ईशा के साथ खड़ा हो गया। "बाबूजी, ईशा सही कह रही है। हम दोनों बराबर के साथी हैं। यह रस्म 'कन्यादान' की जगह 'पाणिग्रहण' (हाथ थामना) का प्रतीक बन सकती है, जो हम दोनों के बराबर के रिश्ते को दर्शाएगी।"
रमाकांत जी के अंदर एक द्वंद्व चल रहा था। एक तरफ उनकी सालों की मान्यताएँ थीं, समाज का डर था। दूसरी तरफ, उनकी बेटी की आँखों में आँसू थे और उसके शब्दों में एक तर्क था, जिसे वे झुठला नहीं सकते थे।
उन्होंने अपनी पत्नी, विमला जी, की ओर देखा। विमला जी ने अपनी नम आँखों से ही उन्हें समर्थन का इशारा किया।
उस दिन, उस मंडप में, एक पिता ने अपनी बेटी का 'दान' नहीं किया। रमाकांत जी ने ईशा और आदित्य, दोनों के हाथ अपने हाथों में लिए और कहा, "मैं आज अपनी बेटी का हाथ अपने बेटे के हाथ में सौंप रहा हूँ। आज से तुम दोनों एक-दूसरे का सहारा हो, एक-दूसरे की ताकत हो। जाओ, और एक सुखी जीवन का निर्माण करो।"
पंडित जी भी इस बदलाव को देखकर मुस्कुराए।
यह कहानी हमें सिखाती है कि पारिवारिक परंपराएँ और सामाजिक-सांस्कृतिक समारोह हमारी पहचान का एक अभिन्न अंग हैं। वे हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। लेकिन समय के साथ, इन परंपराओं को नए अर्थों और नई समझ के साथ अपनाना भी ज़रूरी है। असली परंपरा वह नहीं जो हमें बाँधकर रखे, बल्कि वह है जो पीढ़ियों के बीच प्यार, सम्मान और संवाद का पुल बनाए।
ईशा के विवाह ने मिश्रा परिवार को यही सिखाया - कि परंपरा का सम्मान उसकी आत्मा को समझकर करने में है, न कि उसे आँख मूँदकर ढोने में।
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