परम चेतना की शुरुआत
गाँव के छोर पर एक सुनसान टीले पर स्थित एक प्राचीन आश्रम था — "विवेकानंद तपोवन"। यहाँ वर्षों से एक साधक रहते थे — स्वामी तापनिष्ठ। उम्र लगभग सत्तर वर्ष, पर चेहरे पर ऐसी आभा, जैसे वर्षों की तपस्या ने उन्हें देवत्व का स्पर्श दे दिया हो।
गाँव वाले उन्हें साधारण संत समझते थे, पर भीतर वे परम चेतना की ओर एक अनवरत यात्रा पर थे।
अर्जुन, एक युवा शोध छात्र, आधुनिक शिक्षा में स्नातक, विदेश जाने की तैयारी में था। लेकिन अंदर कुछ खालीपन उसे खा रहा था। एक दिन वह तपोवन पहुँचा और पूछा:
"स्वामीजी, मैं सब कुछ जानता हूँ — विज्ञान, दर्शन, गणित — पर खुद को नहीं जान पाया। क्या आप बता सकते हैं, मैं कौन हूँ?"
स्वामीजी मुस्कराए, बोले,
"जिस दिन यह प्रश्न वास्तव में तुमसे भीतर से उठेगा, उसी दिन परम चेतना की शुरुआत होगी।"
स्वामीजी ने अर्जुन को पाँच दिन मौन साधना का आदेश दिया। न बोलना, न लिखना — केवल देखना, सुनना, अनुभव करना।
पहले दिन अर्जुन बेचैन रहा। दूसरे दिन उसे अपने विचारों की शोरगुल सुनाई दी। तीसरे दिन भावनाओं की लहरें...। चौथे दिन वह रोया — बिना कारण।
पाँचवें दिन — मौन भीतर उतर गया।
पाँचवें दिन अर्जुन ने स्वामीजी से कहा,
"मैंने अपने भीतर को महसूस किया, जैसे मैं कोई नहीं हूँ... लेकिन फिर भी सब कुछ हूँ!"
स्वामीजी बोले,
"वही ‘कोई नहीं’ होना ही परम चेतना है। अब तुम जान गए — तुम ब्रह्म हो, जगत तुमसे है।"
अर्जुन ने विदेश जाने का विचार त्याग दिया। अब वह गाँव में ही रहने लगा। बच्चों को पढ़ाना, बुजुर्गों की सेवा करना — यही उसका नया जीवन बन गया।
गाँव वाले कहते थे — अर्जुन अब साधारण नहीं रहा। वह देखता है, सुनता है... और सिर्फ मौन में उत्तर देता है।
और आश्रम की दीवार पर अब एक पंक्ति चमकती थी:
"जहाँ मैं नहीं, वहाँ ही परम का आरंभ होता है।"

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