गाँव के अंतिम छोर पर एक मिट्टी का पुराना घर था, जिसमें चाची रहा करती थीं — सब उन्हें इसी नाम से जानते थे। उनका असली नाम कौशल्या देवी था, लेकिन पूरे गाँव में उन्हें "चाची" कहकर ही पुकारा जाता था। न किसी से रंजिश, न कोई लालच—बस एक सादा जीवन, जिसका हर कोना स्नेह से भरा हुआ था।
उनका पति वर्षों पहले चल बसे थे, संतान कोई नहीं थी। लेकिन, चाची के आँगन में बच्चों की किलकारियाँ हर दिन गूंजती थीं—कभी भतीजा रघु, कभी पड़ोसन की बेटी रिम्मी, कभी नंदू...। सभी उन्हें मां जैसा मानते।
एक दिन गाँव में खबर फैली कि रघु की नौकरी शहर में लग गई है। चाची की आंखों में आंसू थे—खुशी के। उसने रघु के लिए अपने पुराने संदूक से सिल्क की एक धोती निकाली और बोली, “ये तेरे बाबूजी की है, जब पहली बार पूजा करवाने गए थे, तब पहनी थी। तू इसे ले जा...।”
रघु ने कहा, “चाची, आप भी चलो मेरे साथ।”
चाची हंस दीं, “बेटा, मेरे जैसे पेड़ की जड़ें यहीं जमती हैं, तुम उड़ो...।”
कुछ महीने बाद चाची बीमार हो गईं। गाँव की बहुएँ, बच्चे और बूढ़े—सबने सेवा की। लेकिन रघु नहीं आया। शहर की भागदौड़ में वह "चाची" को भूल चुका था।
एक दिन जब उनकी तबीयत बहुत बिगड़ी, तब रिम्मी ने शहर फोन किया, “भैया, चाची की हालत बहुत खराब है...”
लेकिन फोन कट गया... रघु ने न कॉल किया, न आया।
चाची ने आखिरी साँसें लेते हुए बस इतना कहा —
“मैं तो सोचती थी, मैं किसी की माँ नहीं बनी... लेकिन आज लगता है, माँ होना तो केवल जन्म देने से नहीं होता।”
उनके अंतिम संस्कार में गाँव का हर बच्चा, हर महिला रो रहा था... और चाची का आँगन एकदम सूना हो गया।
"कभी-कभी जो हमें जन्म नहीं देते, वही हमें सबसे ज़्यादा संवारते हैं। उन्हें भूल जाना, खुद को खो देने जैसा है।"

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