सनातन पारिवारिक परंपरा: सेवा और संस्कार की अनमोल विरासत
सनातन मूल्य किसी किताब में लिखे गए सिर्फ़ शब्द नहीं हैं; वे हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, हमारे रिश्तों में और हमारे कर्मों में बसते हैं। यह कहानी है ऐसे ही कुछ मूल्यों की - सेवा, सम्मान और त्याग की, और उस एक परिवार की, जिसने आधुनिकता की दौड़ में इन मूल्यों को फिर से जीना सीखा।
यह कहानी है सेवानिवृत्त शिक्षक, श्री रामसेवक जी, उनके बेटे, नीरज, और उनकी बहू, आस्था, की।
रामसेवक जी, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर था, ने अपनी पूरी ज़िंदगी 'सेवा' के धर्म को जिया था। वह अपने छोटे से कस्बे में एक सम्मानित व्यक्ति थे, जो हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते थे। उनके घर के दरवाज़े हर ज़रूरतमंद के लिए खुले थे। उनका मानना था कि सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और यही उनके परिवार की सनातन पारिवारिक परंपरा थी।
पर उनके बेटे, नीरज, की सोच बिल्कुल अलग थी। वह मुंबई में एक बड़ी इन्वेस्टमेंट कंपनी में काम करता था। उसके लिए समय ही पैसा था। उसे अपने पिता का यह हर किसी के लिए समय और संसाधन बर्बाद करना 'भावुकतापूर्ण मूर्खता' लगता था।
"पापा, आप कब तक दूसरों के लिए जीते रहेंगे?" वह जब भी घर आता, तो शिकायत करता। "दुनिया बहुत आगे निकल गई है। आजकल कोई किसी के लिए नहीं रुकता। 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' का ज़माना है।"
रामसेवक जी बस मुस्कुरा देते। "बेटा, इंसान और जानवर में यही तो फर्क है। हम सिर्फ अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जीते हैं।"
यह दो पीढ़ियों के बीच की एक गहरी वैचारिक खाई थी।
आस्था, नीरज की पत्नी, एक दयालु और समझदार महिला थी। वह अपने ससुर के सेवा भाव का सम्मान करती थी, पर अपने पति के तर्कों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पाती थी। वह इस पारिवारिक संघर्ष में चुपचाप पिस रही थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब रामसेवक जी ने अपनी ज़िंदगी भर की बचत से गाँव के बाहर एक छोटी सी ज़मीन खरीदी। नीरज और आस्था ने सोचा कि शायद अब उनके पिता अपने बुढ़ापे के लिए कुछ निवेश कर रहे हैं।
पर एक दिन, रामसेवक जी ने घोषणा की, "मैं इस ज़मीन पर एक छोटा सा वृद्धाश्रम (ओल्ड एज होम) बनाऊँगा, उन लोगों के लिए जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है।"
यह सुनकर नीरज का गुस्सा फूट पड़ा।
"क्या? वृद्धाश्रम?" वह चीखा। "पापा, यह आपकी मेहनत की कमाई है! आप इसे ऐसे कैसे बर्बाद कर सकते हैं? क्या आपने हमारे भविष्य के बारे में एक बार भी सोचा?"
"तुम्हारा भविष्य तो तुम खुद बना सकते हो, बेटा," रामसेवक जी ने शांत स्वर में कहा। "पर उनका क्या, जिनका कोई भविष्य बनाने वाला ही नहीं है?"
उस दिन, बाप-बेटे के बीच की गलतफहमी इतनी बढ़ गई कि नीरज ने कह दिया, "अगर आपको दूसरों की इतनी ही चिंता है, तो ठीक है। पर आज से इस घर और मुझसे कोई उम्मीद मत रखिएगा।"
वह गुस्से में अपनी पत्नी, आस्था, को लेकर वापस मुंबई चला गया।
रामसेवक जी टूट गए। जिस बेटे के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, आज वही उन्हें गलत समझ रहा था। पर उन्होंने अपने 'सेवा' के मार्ग को नहीं छोड़ा। यह उनका त्याग था, अपने सिद्धांतों के लिए अपने ही बेटे से दूर हो जाने का।
उन्होंने अकेले ही उस आश्रम का निर्माण शुरू करवाया।
समय बीता। एक साल बाद, नीरज की कंपनी को एक बहुत बड़ा नुकसान हुआ और उसकी नौकरी चली गई। जिस सफलता पर उसे बहुत घमंड था, वह रातों-रात रेत के महल की तरह ढह गई। उसके दोस्त, जो कल तक उसके साथ थे, आज फोन भी नहीं उठाते थे।
वह हताश, निराश और पूरी तरह से अकेला महसूस कर रहा था।
उस मुश्किल समय में, आस्था ने उसे सहारा दिया। "नीरज," उसने कहा, "शायद हमें कुछ दिनों के लिए घर वापस चलना चाहिए।"
नीरज शर्मिंदा था। वह अपने पिता का सामना कैसे करता? पर उसके पास कोई और रास्ता भी नहीं था।
जब वे दोनों गाँव पहुँ-चे, तो उन्होंने देखा कि जिस बंजर ज़मीन को नीरज बेकार समझता था, वहाँ आज एक छोटा सा, सुंदर सा आश्रम खड़ा है, जिसका नाम था - 'अपना घर'।
वे जब अंदर गए, तो उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा।
उनके पिता, रामसेवक जी, एक बूढ़े, लाचार व्यक्ति को अपने हाथों से खाना खिला रहे थे, और उनके चेहरे पर एक गहरी, अलौकिक शांति थी। आश्रम के बाकी बुजुर्ग उन्हें घेरकर बैठे थे, और उनके चेहरों पर ऐसा सुकून था, जैसे उन्हें अपना खोया हुआ परिवार मिल गया हो।
तभी, एक बूढ़ी माँ ने रामसेवक जी से कहा, "बेटा, आज तूने खिला दिया, भगवान तेरा भी घर हमेशा भरा रखे।"
'बेटा'... यह एक शब्द नीरज के दिल में उतर गया। यह एक बेटे का आत्म-बोध था। उसे आज समझ आया कि उसके पिता ने पैसा नहीं, बल्कि दुआएँ कमाई हैं, आशीर्वाद कमाया है। उन्होंने एक घर नहीं, बल्कि कई बेघर लोगों के दिलों में अपना घर बनाया है।
उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे।
वह धीरे-धीरे अपने पिता के पास गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। "मुझे माफ कर दीजिए, पापा। मैं ही गलत था। मैं पैसे को ही सब कुछ समझता रहा, पर असली दौलत तो आप कमा रहे हैं।"
रामसेवक जी ने अपने बेटे को उठाकर गले से लगा लिया। "कोई बात नहीं, बेटा। देर से ही सही, पर तू घर तो आ गया।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारी सनातन पारिवारिक परंपरा सिर्फ पूजा-पाठ या कर्मकांड नहीं है। इसकी आत्मा 'सेवा परमो धर्मः' (सेवा ही परम धर्म है) के सिद्धांत में बसती है। सच्ची सफलता पैसा या पद कमाने में नहीं, बल्कि उन मूल्यों को जीने में है जो हमें एक बेहतर इंसान बनाते हैं।
उस दिन, नीरज ने फैसला किया कि वह मुंबई वापस नहीं जाएगा। वह अपने पिता के साथ मिलकर उस आश्रम को और भी बड़ा बनाएगा। उसने अपने कॉर्पोरेट स्किल्स का इस्तेमाल 'सेवा' के लिए करने का निश्चय किया, और इस तरह, एक नई पीढ़ी ने अपनी पुरानी विरासत को एक नया आयाम दिया।
 
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