सामाजिक परंपराएँ: नवरात्रि - आस्था और बदलाव की एक कहानी
भारत में त्योहार सिर्फ़ कैलेंडर की तारीखें नहीं होते; वे हमारी संस्कृति, हमारे रिश्तों और हमारी सामाजिक परंपराओं की आत्मा होते हैं। और जब बात नवरात्रि की हो, तो यह सिर्फ़ नौ दिनों की पूजा नहीं, बल्कि स्त्री शक्ति, आस्था और परिवार के एक साथ आने का एक जीवंत उत्सव बन जाता है। पर जब इन्हीं परंपराओं का सामना एक नई पीढ़ी के नए सवालों से होता है, तो क्या होता है?
यह कहानी है पंडित रामभरोसे के परिवार की, और उस नवरात्रि की, जिसने उनके घर की सबसे पुरानी परंपरा को एक नया अर्थ दिया।
पंडित रामभरोसे, अपने मोहल्ले के सबसे सम्मानित व्यक्ति थे। उनके घर में नवरात्रि का पर्व बड़ी धूमधाम और कठोर नियमों के साथ मनाया जाता था। नौ दिनों तक घर में सिर्फ फलाहार बनता, रोज़ दुर्गा सप्तशती का पाठ होता, और अष्टमी के दिन नौ कन्याओं का पूजन होता, जिन्हें देवी का रूप मानकर उनके पैर धोए जाते और उन्हें भोजन कराया जाता।
यह कहानी है पंडित जी की, उनकी बहू, विधा की, और उनकी पोती, आठ साल की रिया की।
विधा, एक पढ़ी-लिखी और आधुनिक विचारों वाली महिला थी। वह अपनी सास की ही तरह हर परंपरा को पूरी श्रद्धा से निभाती थी, पर उसके मन में कुछ सवाल थे। उसे यह बात हमेशा खटकती थी कि 'कन्या पूजन' में सिर्फ लड़कियों को ही क्यों पूजा जाता है? लड़के क्यों नहीं? क्या देवी का अंश सिर्फ बेटियों में ही होता है?
इस साल, नवरात्रि से कुछ दिन पहले, एक ऐसी घटना घटी जिसने विधा के इन सवालों को और भी गहरा कर दिया।
मोहल्ले में रहने वाले एक गरीब रिक्शावाले की अचानक मृत्यु हो गई। उसके पीछे उसकी पत्नी और दो छोटे बच्चे रह गए - एक आठ साल की बेटी, परी, और एक छह साल का बेटा, कान्हा।
विधा ने देखा कि कैसे वह औरत दिन-रात मेहनत करके अपने दोनों बच्चों का पेट पालने की कोशिश कर रही है। उसने देखा कि कैसे छोटा सा कान्हा अपनी बहन परी का हाथ पकड़कर उसे स्कूल ले जाता है, और कैसे परी अपनी माँ की मदद करने के लिए अपनी पढ़ाई के बाद छोटे-मोटे काम करती है। उन दोनों भाई-बहन में एक अटूट प्रेम और एक-दूसरे के लिए सम्मान था।
नवरात्रि शुरू हुई। पंडित जी के घर में रोज़ की तरह पूजा-पाठ होने लगा। अष्टमी के दिन, जब विधा 'कन्या पूजन' की तैयारी कर रही थी, तो उसकी बेटी रिया ने एक मासूम सा सवाल पूछा।
"माँ, इस बार हम परी को भी बुलाएँगे न कन्या पूजन में?"
"हाँ बेटा, ज़रूर," विधा ने कहा।
"तो क्या हम कान्हा को भी बुला सकते हैं?" रिया ने पूछा। "वह भी तो परी की तरह ही अच्छा बच्चा है।"
विधा के पास अपनी बेटी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
उसने हिम्मत करके यह बात अपने ससुर, पंडित रामभरोसे जी, से पूछी। "बाबूजी, क्या इस साल हम कन्याओं के साथ एक बालक का भी पूजन कर सकते हैं? रिया चाहती है कि कान्हा भी आए।"
पंडित जी का चेहरा सख्त हो गया। "यह तुम क्या कह रही हो, बहू? सामाजिक परंपरा है, कोई खेल नहीं। कन्या पूजन में सिर्फ कन्याओं को ही पूजा जाता है। यह शास्त्र विरुद्ध है। अपशकुन होगा।"
"पर बाबूजी," विधा ने बड़ी विनम्रता से कहा, "शास्त्र तो यह भी कहते हैं कि हर जीव में ईश्वर का वास है। देवी माँ तो पूरे जगत की माँ हैं, वह अपने बच्चों में भेद कैसे कर सकती हैं? कान्हा भी तो उन्हीं का एक रूप है।"
"बहस मत करो, बहू!" पंडित जी ने कठोरता से कहा। "जो सालों से होता आया है, वही होगा।"
विधा चुप हो गई, पर उसका मन बेचैन था। उसे लग रहा था कि वे सिर्फ एक परंपरा को ढो रहे हैं, उसकी आत्मा को नहीं समझ रहे।
अष्टमी की सुबह, नौ कन्याएँ घर में आईं, उनमें परी भी थी। पंडित जी उनके पैर धो रहे थे, उन्हें तिलक लगा रहे थे। तभी, दरवाज़े पर एक छोटा सा बच्चा आकर खड़ा हो गया। वह कान्हा था। वह अपनी बहन को देखने आया था।
उसकी आँखों में एक अजीब सी ललक थी। वह देख रहा था कि कैसे उसकी बहन को इतना सम्मान मिल रहा है, उसे नए कपड़े पहनाए जा रहे हैं और उसे स्वादिष्ट भोजन परोसा जा रहा है।
पंडित जी ने उसे देखा और नज़र फेर ली।
तभी, विधा की बेटी, रिया, उठी और अपनी खीर की कटोरी लेकर कान्हा के पास चली गई। "तुम भी खाओगे?" उसने बड़ी मासूमियत से पूछा।
यह देखकर, विधा अपने आँसू नहीं रोक पाई। उसने अपने ससुर की ओर एक उम्मीद भरी नज़र से देखा।
पंडित रामभरोसे जी के अंदर एक द्वंद्व चल रहा था। एक तरफ उनकी सालों की मान्यताएँ और समाज का डर था। दूसरी तरफ, दो मासूम बच्चों की आँखों में छिपा एक गहरा सवाल था। उन्हें अचानक अपने शास्त्र ज्ञान का एक और पहलू याद आया - 'ईश्वर न तो स्त्री है, न पुरुष। वह तो बस एक ऊर्जा है, जो हर जीव में समान रूप से बसती है।'
उन्हें एहसास हुआ कि वे देवी की पूजा तो कर रहे हैं, पर समानता के उनके सबसे बड़े संदेश को ही भूल गए हैं।
उन्होंने एक गहरी साँस ली, और फिर जो किया, उसने वहाँ मौजूद हर किसी को हैरान कर दिया।
वह उठे, और कान्हा के पास गए। वह उसके सामने घुटनों पर बैठ गए, और अपनी कांपती हुई हथेली से उन्होंने उस छोटे से बच्चे के पैर धोए।
"मुझे माफ कर दे, बेटा," उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। "आज तूने मुझे मेरी सबसे बड़ी पूजा का सही अर्थ सिखाया है।"
उस दिन, उस घर में सिर्फ नौ कन्याओं का नहीं, बल्कि दस बच्चों का पूजन हुआ।
यह कहानी हमें सिखाती है कि सामाजिक परंपराएँ हमारी धरोहर हैं, पर जब वे समय के साथ बदलती नहीं, तो वे बंधन बन जाती हैं। नवरात्रि का असली पर्व सिर्फ कन्याओं को पूजने में नहीं, बल्कि हर बच्चे में देवी के अंश को देखने और समानता का सम्मान करने में है।
पंडित रामभरोसे ने उस दिन एक पुरानी परंपरा को तोड़ा नहीं, बल्कि उसे और भी विशाल और सार्थक बना दिया। उन्होंने सिखाया कि सबसे बड़ा शास्त्र इंसानियत का होता है।
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